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गोवत्स द्वादशी का महत्त्व

गोवत्स द्वादशी का महत्त्व

  • गोवत्स अर्थात वसुबारस द्वादशी दीपावली के आरंभ में आती है । यह गोमाता का सवत्स अर्थात उसके बछड़े के साथ पूजन करने का दिन है । इस वर्ष गोवत्स द्वादशी व्रत 17 अक्टूबर को मनाया जायेगा ।
  • व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का उत्कर्ष करनेवाली गौ सर्वत्र पूजनीय !

सत्त्वगुणी, अपने सान्निध्य से दूसरों को पावन करनेवाली, अपने दूध से समाज को पुष्ट करनेवाली, अपना अंग-प्रत्यंग समाज के लिए अर्पित करनेवाली, खेतों में अपने गोबर की खाद द्वारा उर्वरा-शक्ति बढानेवाली, ऐसी गौ सर्वत्र पूजनीय है । हिंदू कृतज्ञतापूर्वक गौ को माता कहते हैं । जहां गोमाता का संरक्षण-संवर्धन होता है, भक्तिभाव से उसका पूजन किया जाता है, वहां व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का उत्कर्ष हुए बिना नहीं रहता । भारतीय संस्कृति में गौ को अत्यंत महत्त्व दिया गया है ।
गौ में सभी देवताओं के तत्त्व आकर्षित होते हैं। गौ भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है । दत्तात्रेय देवता के साथ भी गौ है । उनके साथ विद्यमान गौ पृथ्वी का प्रतीक है । प्रत्येक सात्त्विक वस्तु में कोई-ना-कोई देवता का तत्त्व आकर्षित होता है । परंतु गौ की यह विशेषता है, कि उसमें सभी देवताओं के तत्त्व आकृष्ट होते हैं। इसीलिए कहा जाता है, कि गौ में सर्व देवी-देवता वास करते हैं । गौ से प्राप्त सभी घटकों में, जैसे दूध, घी, गोबर अथवा गोमूत्र में सभी देवताओं के तत्त्व संग्रहित रहते हैं ।

गोवत्स द्वादशी का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व:

शक संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी 'गोवत्स द्वादशी' के नाम से जानी जाती है । यह दिन एक व्रत के रूप में मनाया जाता है । गौ सात्त्विक है, इसलिए गोवत्स द्वादशी के दिन किए जानेवाले इस पूजन द्वारा उसके सात्त्विक गुणों का सबको स्वीकार करना चाहिए ।

अ. दीपावली के काल में निर्माण होनेवाली अस्थिरता से वातावरण की रक्षा होना !

दीपावली के काल में वातावरण में ऊर्जामय शक्तिप्रवाह कार्यरत होता है। उसके कारण वातावरण का तापमान बढता है । परिणामस्वरूप पृथ्वी के वातावरण को सूक्ष्म स्तर पर हानि पहुंचती है । इससे वातावरण में अस्थिरता उत्पन्न होती है । इस कारण होनेवाली हानि से बचने हेतु दीपावली के पूर्व गोवत्स द्वादशी का व्रतविधान किया गया है । गोवत्स द्वादशी के दिन श्री विष्णु के प्रकट रूप की तरंगे वायुमंडल में प्रक्षेपित होती है हैं । इन तरंगों के माध्यम से वातावरण में स्थिरता बने रहने में सहायता होती है।


आ. विष्णुलोक के कामधेनु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना !

गोवत्स द्वादशी के दिन श्री विष्णु की आप-तत्त्वात्मक तरंगे सक्रीय होकर ब्रह्मांड में आती हैं । इन तरंगों का विष्णुलोक से ब्रह्मांडतक का वहन विष्णुलोक की एक कामधेनु अविरत करती है । उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए कामधेनु के प्रतीकात्मक रूप में इस दिन गौ का पूजन किया जाता है ।


इ. श्री विष्णु के तरंगों का लाभ प्राप्त करना!

श्री विष्णु की अप्रकट रूप की तरंगे भूतलपर आकृष्ट करने के लिए श्री विष्णु के प्रकट रूप की तरंगे भी क्रियाशील होती हैं । इन तरंगों को आकृष्ट करने की सर्वाधिक क्षमता गौ में होती है । गोवत्स द्वादशी के दिन गौ में श्री विष्णु के प्रकट रूप की तरंगे आकृष्ट होने के कारण वायुमंडल से ब्रह्मांडतक श्री विष्णु की चैतन्यदायी तरंगों का आच्छादन के रूपमें प्रक्षेपण होता है । गौपूजन करनेवाले व्यक्ति को श्री विष्णु की इन तरंगों का लाभ होता है।


गोवत्स द्वादशी व्रत के अंतर्गत उपवास:

इस व्रत में उपवास एक समय भोजन कर रखा जाता है । परंतु भोजन में गाय का दूध अथवा उससे बने पदार्थ, जैसे दही, घी, छाछ एवं खीर तथा तेल में पके पदार्थ, जैसे भुजिया, पकौडी इत्यादि ग्रहण नहीं करते, साथ ही इस दिन तवेपर पकाया हुआ भोजन भी नहीं करते । प्रातः अथवा सायंकाल में सवत्स गौ की पूजा की जाती हैं ।


गोवत्स द्वादशी को गौपूजन प्रातःकाल अथवा सायंकाल में करनेका शास्त्रीय आधार:

प्रातः अथवा सायंकाल में श्री विष्णु के प्रकट रूप की तरंगें गौ में अधिक मात्रा में आकर्षित होती हैं । ये तरंगें श्री विष्णु के अप्रकट रूप की तरंगों को १० प्रतिशत अधिक मात्रा में गतिमान करती है । इसलिए गोवत्स द्वादशी को गौपूजन सामान्यतः प्रातः अथवा सायंकाल में करने के लिए कहा गया है ।


गौपूजन आरंभ करते समय प्रथम आचमन किया जाता है । उपरांत ‘इस गौ के शरीर पर जितने केश हैं, उतने वर्षोंतक मुझे स्वर्गसमान सुख की प्राप्ति हो, इसलिए मैं गौ पूजन करता हूं । इस प्रकार संकल्प किया जाता है। प्रथम गौ पूजन का संकल्प किया जाता है । गोमाता को अक्षत अर्पित कर आवाहन किया जाता है । अक्षत अर्पित कर आसन दिया जाता है । तत्पश्चात पाद्य, अर्घ्य, स्नान इत्यादि उपचार अर्पित किए जाते हैं । वस्त्र अर्पित किए जाते हैं । तदुपरान्त गोमाता को चंदन, हलदी एवं कुमकुम अर्पित किया जाता है । तदुपरान्त अलंकार अर्पित किए जाते हैं । पुष्पमाला अर्पित की जाती है । तदुपरांत गौ के प्रत्येक अंग को स्पर्श कर न्यास किया जाता है ।


गौ पूजन के उपरांत बछडे को चंदन, हलदी, कुमकुम एवं पुष्पमाला अर्पित की जाती है । तदुपरान्त गौ तथा उसके बछड़े को धूप के रूप में दो उदबत्तियां दिखाई जाती हैं । तदुपरांत दीप दिखाया जाता है । दोनों को नैवेद्य अर्पित किया जाता है । तदुपरांत गौ की परिक्रमा की जाती है। तुलसीपत्र का हार अर्पित कर मंत्रपुष्प अर्पित किया जाता है । तदुपरांत पुन: अर्घ्य दिया जाता है । अंत में आचमन से पूजा का समापन किया जाता है ।


पूजन के उपरांत पुनः गोमाता को भक्तिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए । गौ प्राणी है । भय के कारण वह यदि पूजन करने न दें अथवा अन्य किसी कारणवश गौ का षोडशोपचार पूजन करना संभव न हों, तो पंचोपचार पूजन भी कर सकते हैं । इस पूजनके लिए पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती ।

गोवत्स द्वादशी से मिलनेवाले लाभ:

गोवत्स द्वादशी को गौ पूजन का कृत्य कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । इससे व्यक्ति में लीनता बढ़ती है । फलस्वरूप कुछ क्षण उसका आध्यात्मिक स्तर बढ़ता है । गौपूजन व्यक्ति को चराचर में ईश्वरीय तत्त्व का दर्शन करने की सीख देता है। व्रती सभी सुखोंको प्राप्त करता है ।


संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव व व्रत’

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