गर, उत्तर दे सको ?
- डॉ. पूजा सिंह गंगानिया

क्यूं ये सजा मेरी
खत्म नहीं होती,
सदियों से साल-दर-साल
आखिर, कब तक फूंकोगे तुम मुझे ??
बुराई पर अच्छाई की विजय
का हवाला देकर
नि:शब्द हो गया हूँ, मैं
तुम्हारे पाप की
विचित्र-सी संज्ञा देखकर
उस युग से, इस युग तक
कैसे बदल गई
खोखली तुम्हारी, अजब-गजब
सब परिभाषाएँ देखकर
यही ना, की
पराई स्त्री को मैं, हर लाया
हाँ, ये सच था
पर पूर्ण सम्मान दिया
जब अपने घर लाया ...
हाँ, मैं राक्षस हूँ
पर अब अचंभित भी हूँ
मुझे गुन्हेगार कहने वालों
नाटकीय मर्यादा पुरुषोत्तम बन
हर बार, हर साल
साल-दर-साल
मुझे फूंक देने वालों
तुमसे एक अदना-सा प्रश्न है
गर, उत्तर दे सको
सीता के लिए महसूस करते हो
किन्तु उसका क्या, जो आजकल तुम
स्त्रियों के साथ-साथ
बच्चियों को भी हरते हो
क्या ये पाप नहीं
मर्यादा को तार-तार करते हो
मानवता की सब सीमाएं
उलांघ यू नरसंहार करते हो
मुझे जलाने से पहले
गर सच,
सत्य की जीत
बुराई पर अच्छाई की जीत
तुम चाहते हो ....
तो पहले, मार डालो
अपने अंदर के रावण को
और पवन कर लो
अपने अंतर्मन को ।
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