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“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” : राष्ट्रभक्ति और संघ की शताब्दी यात्रा

“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” : राष्ट्रभक्ति और संघ की शताब्दी यात्रा

डॉ. राकेश दत्त मिश्र

१.मातृभूमि की वंदना और संघ की शताब्दी

भारत एक ऐसा देश है, जहाँ धरती को केवल भौगोलिक इकाई नहीं माना गया, बल्कि उसे माता के रूप में पूजा गया है। ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक, मातृभूमि की स्तुति को राष्ट्र जीवन का मूल आधार माना गया है। इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपनी स्थापना से लेकर आज तक “भारत माता” की सेवा को ही सर्वोच्च कर्तव्य माना।

सन १९२५ में विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित यह संगठन आज शताब्दी के शिखर पर खड़ा है। सौ वर्षों की इस यात्रा में संघ ने असंख्य सेवा–कार्य, संगठन–निर्माण और राष्ट्र–जागरण का कार्य किया है।

संघ का जीवन–मंत्र उसकी प्रार्थना में ही समाहित है—

“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे। त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्॥”

यह मात्र शब्द नहीं, बल्कि स्वयंसेवक का मातृभूमि के प्रति आत्म–समर्पण और निष्ठा का घोष है।

२. संघ प्रार्थना का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक पक्ष

(क) मातृभूमि को वत्सला माता मानना

संघ प्रार्थना की शुरुआत में ही मातृभूमि को “वत्सला माता” के रूप में संबोधित किया गया है। वत्सला का अर्थ है – स्नेहमयी, करुणामयी, पुत्रवत् संरक्षण करने वाली। यह संकेत करता है कि भारत माता केवल भू–भाग नहीं, बल्कि एक सजीव चेतना है जो अपने संतानों का लालन–पालन करती है।
(ख) आत्म–समर्पण और तपस्या की भावना

“पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते” – यह उद्घोष स्वयंसेवक के पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। उसका तन–मन–धन सब मातृभूमि के लिए अर्पित है।
(ग) वीरव्रत और धर्मसंरक्षण

प्रार्थना में “वीरव्रतम्” और “धर्मस्य संरक्षणम्” की बात आती है। यह केवल राजनीतिक राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि आध्यात्मिक राष्ट्रवाद है जिसमें धर्म, संस्कृति और नीति के संरक्षण को राष्ट्र निर्माण का आधार माना गया है।
(घ) प्रार्थना का योगात्मक महत्व

संघ प्रार्थना सामूहिक संकल्प का रूप है। जिस प्रकार योग साधक ‘ॐ’ का जप कर एकात्मता अनुभव करता है, उसी प्रकार स्वयंसेवक प्रार्थना के माध्यम से राष्ट्रचेतना से तादात्म्य स्थापित करता है।

३. भारत की राष्ट्रीय चेतना और मातृभूमि की अवधारणा


भारतवर्ष की संस्कृति में भूमि को केवल धरा या मिट्टी नहीं माना गया।


ऋग्वेद (१०.१२१) में कहा गया – “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः”।


पुराणों में भारतवर्ष को पुण्यभूमि, कर्मभूमि और मोक्षभूमि कहा गया।


आदि शंकराचार्य ने भी अपने भजनों में भारत माता का वंदन किया।

भारतमाता की अवधारणा पश्चिमी राष्ट्रवाद से भिन्न है। यह राजनीतिक सीमाओं तक सीमित नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना से जुड़ी है। इसी कारण भारत माता की जय–घोष केवल एक नारा नहीं, बल्कि आत्मा का उद्गार है।

४. राष्ट्र निर्माण में संघ का योगदान : १०० वर्षों की यात्रा

(क) स्थापना और उद्देश्य

१९२५ में डॉ. हेडगेवार ने यह महसूस किया कि भारत की स्वतंत्रता केवल राजनीतिक संघर्ष से संभव नहीं होगी, जब तक समाज में संगठन और संस्कार का पुनर्जागरण न हो। उन्होंने ‘स्वयंसेवक’ की परंपरा को जन्म दिया।
(ख) संगठनात्मक ढांचा

संघ की शाखाएँ ही इसका हृदय हैं। दैनिक शाखाओं में शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शिक्षा का संयोजन होता है।
(ग) सेवा कार्य

संघ ने समय–समय पर समाज की हर आवश्यकता में योगदान दिया—


१९४७ के विभाजन काल में राहत कार्य


प्राकृतिक आपदाओं (भूकंप, बाढ़, सुनामी, कोविड–१९) में सेवा


ग्रामीण विकास, शिक्षा और संस्कार केंद्र
(घ) स्वतंत्रता और राष्ट्र जागरण

संघ के अनेक स्वयंसेवक स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। आजादी के बाद राष्ट्र जीवन की चुनौतियों में संघ ने संगठन शक्ति से समाज का मार्गदर्शन किया।

५. राष्ट्रवाद और समर्पण की परंपरा


संघ का राष्ट्रवाद पश्चिमी ‘नेशन–स्टेट’ की अवधारणा पर नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित है।


स्वयंसेवक का जीवन आदर्श : “देश सर्वोपरि”।


अनेक स्वयंसेवकों ने अपने व्यक्तिगत सुख–सुविधा का त्याग कर राष्ट्र सेवा की।


संघ के कार्यकर्ता राजनीति, समाज सेवा, शिक्षा, उद्योग, विज्ञान – हर क्षेत्र में राष्ट्र–भक्ति का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

यद्यपि संघ के विरुद्ध कई बार दुष्प्रचार हुआ, परंतु समय–समय पर उसकी निस्वार्थ सेवा ने सबको सत्य का अनुभव कराया।

६. संघ प्रार्थना और भारतीय सांस्कृतिक चेतना


संघ प्रार्थना केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिंब है।


“अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम्” – यह प्रार्थना संघ को अदम्य शक्ति प्रदान करती है।


“परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्” – यह भविष्य की दृष्टि है कि भारत पुनः विश्वगुरु बने।


प्रार्थना का प्रतिपाद्य है – साधना, संगठन और समर्पण।

७. भारत माता और विश्व मंच


आज जब भारत वसुधैव कुटुम्बकम् की नीति के साथ विश्व नेतृत्व कर रहा है, संघ की प्रार्थना और कार्य और भी प्रासंगिक हो गए हैं।


योग, आयुर्वेद और संस्कृति का प्रसार


प्रवासी भारतीय समाज में संघ का कार्य


भारत की आध्यात्मिक धारा को विश्व में प्रवाहित करना

८. संघ की शताब्दी : वर्तमान और भविष्य


१०० वर्षों की यह यात्रा एक मील का पत्थर है।


संघ आज लाखों शाखाओं और करोड़ों स्वयंसेवकों का संगठन है।


शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, सेवा और संस्कार हर क्षेत्र में इसका योगदान है।


भविष्य की चुनौतियाँ— वैश्विक संकट, सांस्कृतिक आक्रमण और सामाजिक समरसता।


समाधान— प्रार्थना में निहित आदर्श : वीरव्रत, धर्मरक्षा और राष्ट्रवैभव।

संघ की प्रार्थना “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” राष्ट्रभक्ति का कालजयी मंत्र है। यह प्रार्थना स्वयंसेवक को यह स्मरण कराती है कि उसका जीवन व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्र के लिए है।

१०० वर्षों की यात्रा ने सिद्ध कर दिया है कि संघ केवल संगठन नहीं, बल्कि भारत माता का सजीव पुत्र है, जिसका प्रत्येक श्वास मातृभूमि के लिए समर्पित है।

जब करोड़ों स्वयंसेवक प्रतिदिन इस प्रार्थना का उच्चारण करते हैं, तो यह केवल आवाज़ नहीं, बल्कि राष्ट्र की धड़कन होती है—

“भारत माता की जय!”
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