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आंख का अंधा, नाम नैनसुख

आंख का अंधा, नाम नैनसुख

रचना :---- डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
आंख का अंधा मगर,
नैनसुख रखा है नाम,
देख न पाए,फिर भी कहे-
दिखता चारों धाम ।

भ्रम का चश्मा पहने बैठा,
सच से उसका बैर,
अंधेरे में भी ढूंढता रहता है,
रोशनी की खैर।


गांव में कहे-मैं ज्ञानी हूँ,
मुझसे ना टकराना,
जब भी ठोकर खाकर गिरे,
बोले- मेरा काम है हंसाना।


रंग न जाने, रूप न पहचाने,
फिर भी करे चर्चा आम,
कहता-इंद्रधनुष मेरे मन में,
सतरंगी है हर शाम।


लोगों ने सोचा, दया दिखाएँ,
समझाएँ उसे सच्चाई,
पर नैनसुख ने ठान लिया,
सब झूठी है सुनवाई।


पल-पल ठोकर खा कर भी,
सीखता नहीं सबक,
बोले - मेरी दुनिया मेरी है,
बाकी सब है फड़क।


ज्ञान बिना गुरुर जो पाले,
समझो वही झंझट,
नैनसुख जैसे लाखों हैं,
जिनका उल्टा पट।


इसलिए कहना सार यही,
खोलो मन के द्वार,
वरना अंधे नैनसुख बनकर,
खो दोगे संसार।
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