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"अंतस का रावण"

"अंतस का रावण"

रचनाकार ------- डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
बाँस-फूस से रचा पुतला,
हर दशहरे जलता है,
भीड़ हँसती, पटाखे फूटें,
पर भीतर कुछ खलता है।


रावण बाहर जितना बड़ा,
अंदर उससे भारी है,
अहंकार, लोभ, जलन, द्वेष —
हर मन में तिरछी नारी है।


हर वर्ष जो बाहर जलाते,
असली रावण बच जाता है,
चेहरे पर मुस्कान लिए,
भीतर मस्तक झुक जाता है।


सीता हर दिल में बसती है,
राम भी छुपा किसी कोने में,
पर रावण बैठा सिंहासन पर,
सज-धज के अपने ही रोने में।


माटी के उस पुतले से
अब आशा क्यों करते हो?
जब अपने मन के रावण को
हर दिन तुम ही पोषते हो।


एक बार दिल से पूछो तो —
कब सत्य को अपनाओगे?
कब मोह-माया की लंका को
तुम खुद ही जलाओगे?


बाँस-फूस जलता रहेगा,
रिवाज़ों में उलझे रह जाओगे,
जब तक अंतस के रावण को
तुम जीवित ही रख जाओगे।


जला दो उसे जो भीतर है,
जो खुद को सबसे ऊँचा माने,
जो सत्य को कुचलकर
अपने स्वार्थ का रथ हाँके।


दशहरा तब ही पूर्ण होगा,
जब भीतर की ज्वाला जागे,
रावण को फिर न बाहर ढूँढो
वो हर मन के पिंजरे में लागे।
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