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" "वेदना का शुष्क मरुस्थल"

"वेदना का शुष्क मरुस्थल"

हँसने की आकांक्षा में
जो वेदना दबाई गई,
वह अब केवल आँसू नहीं—
वह चेतना का शिलाखंड है,
जो नेत्रों के द्वार पर
जड़वत हो गया है।


आँसू का पत्थर होना
दरअसल आत्मा का शुष्क होना है।
जब संवेदना का स्रोत
निरंतर उपेक्षा से रिक्त हो जाता है,
तो करुणा की धाराएँ
मौन की मरुभूमि में
लुप्त हो जाती हैं।


ऋषियों ने कहा है—
"यदा भावः शून्यः भवति,
तदा जीवः न कठोरः,
अपितु मृतवत् हो जाता है।"
(जब भाव रिक्त हो जाता है,
तो जीव कठोर नहीं—
मृतप्राय हो जाता है।)


मनुष्य का अंतःकरण
आनंदमय कोश से ढका हुआ था,
पर दुखों को हँसी से छिपाने की आदत
ने उसे आवरणों में कैद कर दिया।
अब वह न भीतर रो सकता है,
न बाहर हँस सकता है—
वह केवल एक "पत्थर" बनकर
कालचक्र के बोझ तले
निष्प्राण पड़ा रहता है।


आख़िरकार प्रश्न यही है—
क्या हम पीड़ा से मुक्त होना चाहते हैं,
या केवल उसे ढकने के लिए
मृगतृष्णा का वस्त्र ओढ़ते रहेंगे?
आत्मा का शोक
हँसी से नहीं मिटता,
वह तो केवल ज्ञान की दीप्ति से
विरल होता है।


क्योंकि आँसू यदि बहते हैं,
तो वे शुद्धि हैं;
पर यदि जम जाते हैं,
तो वे केवल
निष्ठुरता का
अनंत शिलालेख बन जाते हैं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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