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पितृ पक्ष: पूर्वजों का सम्मान

पितृ पक्ष: पूर्वजों का सम्मान

सत्येन्द्र कुमार पाठक
पितरों के नाम से है ये पंद्रह दिनों की शाम,
मन में श्रद्धा और होंठों पे रहे उनका नाम।
जब यादें बनके आते हैं, वो सूक्ष्म रूप में,
आँसू बन के बहता है, आँखों से हर एक काम।
'पितृ ऋण' है सबसे भारी, ये हमारे धर्म की है बात,
श्राद्ध से मिलता है हमको, अपने कर्ज़ों से आराम।
गया की मिट्टी में, फल्गु के जल में बहकर,
आत्मा को मोक्ष मिले, ये ही है सच्चा अंजाम।
वर्जित है तामसिक, वर्जित है हर एक ख़ुशी,
शांति और सादगी से हो, हर एक पूजा-कलाम।
पितृ दोष से घिरे, हर मुश्किल का हल है यहाँ,
श्राद्ध ही है वो दवा, जो दे हर दिल को पैग़ाम।
हम रहें या न रहें, पर ये परंपरा रहेगी,
हमारी जड़ों का एहसास है, ये ही हमारा है मुक़ाम।।


नजरें उठा के देख
नज़रें उठा के देख ज़रा, आसमाँ को तू,
अश्कों से भर के देख ज़रा, दास्ताँ को तू।
मौसम भी बदल जाते हैं, साँसों की तरह,
इक बार तो सुन ले, हवा के पैग़ाम को तू।
कुछ लोग तो आते हैं, फ़क़त दिल दुखाने को,
पर दिल में सजा के रख, हर इक मेहमान को तू।
जो छूट गए पीछे, वो भी थे कभी हमसफ़र,
याद करके उनके, चले जाने के नाम को तू।
हर दर्द का एक शब है, हर रात की सुबह,
बस थकना नहीं, दे सुकून हर इंतिहान को तू।
लौट आएंगे वो लम्हे, जो खो गए थे कभी,
बस हौसला दे दे, अपने दिल के मकान को तू।
ये ज़िंदगी इक गज़ल है, जिसे लिखना है तुझे,
रंग भर के देख, हर एक अंजाम को तू।।


पितृ पक्ष
वो जो गुज़र गए, उनसे मुहब्बत का ये है पखवाड़ा,
याद करके उनको, हर दिल को सुकून मिला थोड़ा।
ये ज़िन्दगी उनकी है, उनका दिया हुआ है साया,
श्राद्ध करके हमने, उनका कर्ज़ है चुकाया।
गया की पावन धरती, फल्गु की वो बहती धारा,
यहाँ से होता है, पितरों की आत्मा का किनारा।
तामसिक छोड़ के, सादा जीवन अपनाओ तुम,
पशु-पक्षियों को खिला के, अपना फर्ज निभाओ तुम।
पितृ दोष से घिरे हो, तो जीवन में अशांति है,
श्राद्ध से मिलता है, हर दर्द को एक शांति है।
ये रिवाज़ नहीं है, ये तो है संस्कृति का हिस्सा,अपनी जड़ों को पहचानो, जीवन का सच्चा ।।
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