"पाँचजन्य की हुंकार"
सिन्धु–जल की शीतल ध्वनियों सेप्रक्षालित हुआ मैं—
शंख,
जिसकी नाभि में अब भी
अनुनादित है आदिकाल की गूँज।
मैं वह पाँचजन्य हूँ
जो कृष्ण की अंगुलियों में
प्रलयंकारी पुकार बनता था,
पर अब
कुरुक्षेत्र की म्लान धूल में
परित्यक्त पड़ा हूँ
मानव–स्मृति की निर्जनता में।
तुम्हारे अधरों की नीरवता
मेरे प्राणों पर शूल समान है।
क्या तुम्हारे कंठ अब
इतने जड़ हो गए हैं
कि वीरत्व का शौर्य–नाद
कहीं भीतर भी
अनुगूँजित नहीं होता?
हे निस्तब्ध मानव,
तुम्हारे हृदय में
कहाँ खो गई वे महागाथाएँ
जो मातृ–मंदिर की गोद में
या प्रातःकालीन विद्यालय में
सुनाई जाती थीं—
झाँसी की रानी का आत्मविलाप,
प्रताप का अजेय संकल्प,
रणजीत सिंह की सिंह–गर्जना।
क्या विस्मृत कर दिया तुमने
वह रुधिर–लेख
जो सोमनाथ शर्मा के
शौर्य–कण्ठ से लिखा गया था?
क्या विलुप्त कर दिया तुमने
वह अग्नि–ज्योति
जो अब्दुल हमीद की तोप से
विस्फुटित हुई थी?
और क्या मौन कर दी तुमने
वह अमरता
जो अल्बर्ट एक्का की देह से
विकिरित हो उठी थी?
मैं प्रतीक्षा करता हूँ—
उन अधरों की
जो मुझे फिर से
हवा की शिराओं में प्रवाहित करें।
मैं प्रतीक्षा करता हूँ—
उन श्रवण–कुहरों की
जो मेरे स्वर में छिपे
सत्य को आत्मसात् कर सकें।
क्योंकि मैं शंख हूँ—
सागर से धुला,
युद्धभूमि में तपा,
और अब
मानवता की निद्रा तोड़ने
एक बार फिर
अधरों की हुँकार चाहता हूँ।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित ✍️
"कमल की कलम से"✍️
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