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बिहार के एक्टर डायरेक्टर दीप श्रेष्ठ ने बिहार कला पुरस्कार पर उठाया सवाल - क्या अश्लीलता पर मिलना चाहिए सम्मान?

बिहार के एक्टर डायरेक्टर दीप श्रेष्ठ ने बिहार कला पुरस्कार पर उठाया सवाल - क्या अश्लीलता पर मिलना चाहिए सम्मान?

जितेन्द्र कुमार सिन्हा दिव्य रश्मि के उपसम्पादक है |

बिहार, जिसकी पहचान उसकी गहरी संस्कृति, लोकगीत, साहित्य और कला के लिए रही है, आज एक नए विवाद के केंद्र में है। मामला है “बिहार कला पुरस्कार” का, जिसे लेकर समाज के विभिन्न वर्गों में नाराजगी देखने को मिल रही है। हाल ही में इस पुरस्कार के लिए भोजपुरी गायिका कल्पना का नाम चुना गया है, जिस पर कई कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि कल्पना के गीतों में अश्लीलता और दोहरे अर्थ की भरमार रही है, और ऐसे कलाकार को सम्मानित करना बिहार की सांस्कृतिक धरोहर का अपमान है। उक्त बातें बिहार के एक्टर डायरेक्टर दीप श्रेष्ठ ने कही।


दीप श्रेष्ठ ने बताया कि भोजपुरी गायकी ने हमेशा लोकसंस्कृति, श्रमगीत, विवाह गीत और संस्कार गीतों की परंपरा को आगे बढ़ाया है। लेकिन पिछले दो दशकों में भोजपुरी संगीत में अश्लीलता और बाजारवाद की घुसपैठ ने इसकी छवि को धूमिल कर दिया है। आज भोजपुरी गीतों को सुनकर लोग अक्सर कहते हैं कि ये गाने परिवार के बीच नहीं सुने जा सकते। ऐसे में यदि कोई कलाकार, जिसने अश्लीलता को बढ़ावा दिया है, बिहार सरकार के सर्वोच्च कला पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है, तो यह न केवल गलत संदेश देता है बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के सामने कला की परिभाषा भी बिगाड़ता है।


उन्होंने यह भी कहा कि पुरस्कार चयन समिति की पारदर्शिता पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं। क्या समिति ने उन लोकगायकों, नाट्य कलाकारों, शास्त्रीय संगीतकारों या लोकगीतों के संवाहकों पर ध्यान नहीं दिया है, जिन्होंने वर्षों से बिना किसी शोर-शराबे के बिहार की असली संस्कृति को जीवित रखा है? जब एक राज्य सरकार कला और संस्कृति के नाम पर ऐसे कलाकारों को पुरस्कृत करती है, जो समाज में विवादास्पद छवि रखते हैं, तो यह सांस्कृतिक विरासत का मजाक बन जाता है।


दीप श्रेष्ठ ने बताया कि बिहार कला पुरस्कार का उद्देश्य उन कलाकारों को सम्मानित करना होना चाहिए, जिन्होंने राज्य की लोकसंस्कृति, साहित्य, नाटक, लोकनृत्य और संगीत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। ये पुरस्कार उन गुमनाम लोक कलाकारों तक जाना चाहिए, जो गाँव-गाँव जाकर बिरहा, सोहर, कजरी, चैता और संस्कार गीत गाकर पीढ़ियों को संस्कृति से जोड़ते रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि ऐसे कलाकार गुमनामी में जीते और मर जाते हैं, जबकि लोकप्रियता और विवादों में रहने वाले कलाकार सम्मानित हो जाते हैं।


उन्होंने कहा कि आज जरूरत है कि बिहार सरकार और संस्कृति विभाग कला पुरस्कारों के चयन में पारदर्शिता लाए। पुरस्कार समिति के सदस्यों को सार्वजनिक किया जाए और उनकी सिफारिशें भी जनता के सामने रखी जाएँ। जब तक यह व्यवस्था नहीं होगी, तब तक ऐसे विवाद बार-बार उठते रहेंगे।


बिहार की पहचान उसकी महान सांस्कृतिक धरोहर से है, न कि बाजारू और अश्लील गीतों से। यदि सरकार सचमुच संस्कृति को बचाना चाहती है, तो उसे असली लोक कलाकारों और संस्कार गीतों को बढ़ावा देना होगा। अश्लीलता पर आधारित गायकी को सम्मानित करना न केवल गलत परंपरा की शुरुआत है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरनाक भी है। —-------------
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