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देश के नए उपराष्ट्रपति सी0 पी0 राधाकृष्णन की चुनौतियां

देश के नए उपराष्ट्रपति सी0 पी0 राधाकृष्णन की चुनौतियां

डॉ राकेश कुमार आर्य
चंद्रपुरम पोनुस्वामी राधाकृष्णन देश के 15 वें उपराष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण कर चुके हैं। श्री राधाकृष्णन की जीत ने भाजपा को नई ऊर्जा प्रदान की है। वास्तव में जिन परिस्थितियों में नए उपराष्ट्रपति का चुनाव हुआ है , उनमें सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के पास लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ही अपना स्पष्ट बहुमत नहीं था। इस प्रकार यह चुनाव भाजपा के लिए 'शक्ति परीक्षण' था। यदि भाजपा अपना उपराष्ट्रपति नहीं बना पाती तो यह निश्चित था कि केंद्र की मोदी सरकार के लिए और कई प्रकार की समस्याएं बढ़ जातीं। भाजपा के रणनीतिकारों की यह रणनीति सफल रही कि उन्होंने सुदूर दक्षिण से उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार सी0पी0 राधाकृष्णन को बनाया।
हमारे संविधान की व्यवस्था के अनुसार भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए सिरों की गिनती अर्थात संसद में किसी दल की सदस्य संख्या बहुत महत्व रखती है। यदि सिरों की गिनती अथवा बहुमत के आंकड़े को देखा जाए तो भाजपा के पास दोनों सदनों में अपने सहयोगी संगठनों को मिलाकर स्पष्ट बहुमत था। परंतु जब गठबंधन की सरकार देश में काम कर रही होती है तो इस बात का डर अंतिम क्षणों तक लगा रहता है कि गठबंधन का कोई भी साथी टूट कर विपक्ष के साथ हाथ मिला सकता है। परंतु जिस प्रकार श्री राधाकृष्णन ने अपने प्रतिद्वंद्वी को करारी पराजय दी उससे यह स्पष्ट हो गया कि गठबंधन के प्रत्येक घटक दल ने गठबंधन धर्म को निभाया । इतना ही नहीं , राजग विपक्षी दलों से भी अपने लिए कुछ सांसदों को तोड़कर लाने में सफल हो गया। प्रधानमंत्री मोदी पर ' वोट चोर' का आरोप लगाने वाला विपक्ष एनडीए की इस प्रकार की रणनीति और एकजुटता को देखकर स्वयं दंग रह गया है। विपक्ष की ओर से श्री बी सुदर्शन रेड्डी को चुनाव में अपना संयुक्त प्रत्याशी बनाया गया था। विपक्षी मोर्चे ने तमिल बनाम तेलुगू अस्मिता का मुद्दा उठाया, परंतु उसका यह मुद्दा काम नहीं आया। यह बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है कि विपक्ष के द्वारा कई प्रकार के अवरोध डालने के उपरांत भी एनडीए की सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी के साथ-साथ वाईएसआर कांग्रेस और बीआरएस भी एनडीए के साथ खड़ी रहीं। जिस प्रकार चुनाव परिणाम आए हैं उससे यह बात स्पष्ट हो गई कि विपक्षी एकता भंग हो गई है ,क्योंकि वह अपने सभी सांसदों को एकजुट नहीं रख पाया।
इस समय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाते हुए ' वोट चोर - गद्दी छोड़' का नारा लगा रहे हैं। वह सत्ता प्राप्ति के लिए उतावले हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि सत्ता प्राप्ति के लिए उनकी दादी और दादी के पिता ने चाहे जिस प्रकार के हथकंडे अपनाए हों ,परंतु बाद में इतिहास अपने ढंग से लिखवाकर और अपने आप ही ' भारत रत्न' लेकर वे महानता को प्राप्त हो गए। राहुल गांधी की सोच है कि वह स्वयं भी एक बार चाहे जिस प्रकार और जैसे भी सत्ता प्राप्त कर लें तो उसके बाद इतिहास लिखवाना तो उनका अपने हाथ का काम है। राहुल गांधी के साथ विपक्ष के नेता हां में हां मिलाने के लिए साथ लगे हुए हैं । उन्हें भी केंद्र से मोदी सरकार हटी हुई दीखनी चाहिए । इसके लिए यदि राहुल गांधी का शोर शराबा या मिथ्या पाखंडी आचरण काम आता है तो वे इसे दबी जुबान से ही सही परन्तु स्वीकार करने को तैयार हैं । यद्यपि वह भीतर से राहुल गांधी की गतिविधियों से सहमत नहीं हैं। विशेष रूप से शरद पवार जैसे वरिष्ठ नेता इस प्रकार की ओछी राजनीति को कतई पसंद नहीं करते। उनकी सोच है कि मुद्दों की राजनीति करते हुए विरोध किया जाए और जनता को भ्रमित करने के कुत्सित प्रयासों पर प्रतिबंध लगना चाहिए। उपराष्ट्रपति के चुनाव परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि राहुल गांधी की राजनीति के साथ विपक्ष एकजुट नहीं है, लोग भीतर ही भीतर विद्रोही हैं। हमने विपक्ष की एकजुटता को उपराष्ट्रपति चुनाव में ' क्रॉस वोटिंग' के माध्यम से ही नहीं देखा है, इसे हमने संसद में कई विधेयकों पर विपक्षी दलों के बीच बनने वाली असहमति के रूप में भी देखा है, जब कुछ सांसद या छोटे-मोटे दल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विपक्षी एकता को भंग कर सरकार को समर्थन देते हुए दिखाई दिए हैं। बिहार में जिस प्रकार राहुल गांधी तेजस्वी यादव के साथ मिलकर वोट चोरी के आरोप के साथ प्रधानमंत्री मोदी को घेरने का प्रयास कर रहे हैं, उसमें भी सभी विपक्षी राजनीतिक दल राहुल गांधी की रणनीति से सहमत नहीं हैं। आम जनता में से लोग निकाल कर यह कहने का साहस कर रहे हैं कि राहुल गांधी के इस नारे में कोई दम नहीं है।
कुल मिलाकर उपराष्ट्रपति चुनाव में राजनीति के कई गुप्त रहस्यों को खोल कर रख दिया है। राजनीतिक दलों की सोच को स्पष्ट कर दिया है। विचारधारा की लड़ाई के उपरांत भी राष्ट्रहित में भी कुछ लोग सही मुद्दों पर, सही समय पर, सही व्यक्ति का साथ दे सकते हैं, यह भी स्पष्ट कर दिया है। राष्ट्रहित में इसी प्रकार की परिपक्व राजनीतिक सोच और भी अधिक बलवती होनी चाहिए। राजनीति की जानी चाहिए, परन्तु वह मुद्दों के आधार पर होनी चाहिए।
। इस संदर्भ में हम यह भी कहना चाहेंगे कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के समय राजनीति को एक तरफ रख देना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को स्पष्ट बहुमत वाले दल या गठबंधन का साथ देना चाहिए अर्थात उसी के प्रत्याशी को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति मान लेना चाहिए। इससे एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा स्थापित हो सकती है । हमारा मानना है कि यदि ऐसा होता है तो तब इन दोनों शीर्ष पदों पर बैठने वाला व्यक्ति कहीं अधिक न्यायप्रिय होकर सभी की बात को सुनने का प्रयास करेगा। उसे इस बात का आभास होगा कि वह किसी एक राजनीतिक दल का बनाया हुआ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति नहीं है अपितु वह सभी राजनीतिक दलों का आशीर्वाद लेकर यहां पहुंचा है । इसलिए उसे सभी के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
हम सभी जानते हैं कि आम आदमी पार्टी किस प्रकार कांग्रेस के प्रति आक्रामक रही है ? कभी इसके नेता केजरीवाल कांग्रेस के नेता सोनिया को सबसे अधिक भ्रष्ट राजनीतिज्ञ करार देते थे और उनकी गिरफ्तारी की मांग करते थे। जब केजरीवाल भ्रष्टाचार में आकंठ डूब गये तो अपने पुराने घावों को याद करते हुए कांग्रेस ने ही केजरीवाल को मुख्यमंत्री रहते हुए जेल की सलाखों के पीछे भिजवाने की भूमिका तैयार की थी। इस प्रकार के आचरण को दोनों पार्टी एक दूसरे के विरुद्ध स्मरण रखती हैं, इसलिए इसे कभी भी एक साथ बैठकर ईमानदारी से साथ चलने और राष्ट्रहित में काम करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
नये उपराष्ट्रपति श्री राधाकृष्णन मूल रूप में आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े रहे हैं। उन्हें हिंदुत्व की विचारधारा का पूर्ण बोध है और वह उसके प्रति समर्पित भी हैं। उनके इसी समर्पण भाव को ध्यान में रखकर उन्हें भाजपा ने आरएसएस का आशीर्वाद लेकर उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया। इसके विपरीत पूर्व राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जिस प्रकार बीच में त्यागपत्र देकर हटे हैं, उसके पीछे की कहानी धीरे-धीरे स्पष्ट होती जाएगी, परंतु इतना निश्चित है कि वह स्वास्थ्य कारणों से नहीं हटे हैं। उनके हटने के पीछे एक कारण यह भी रहा है कि मूल रूप में वह आरएसएस या भाजपा के कार्यकर्ता नहीं रहे थे।
विचारधारा के उचित समन्वय के चलते श्री राधाकृष्णन के साथ सरकार को और उन्हें सरकार के साथ मिलकर चलने में कोई असुविधा नहीं होगी। वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियां देश में बनी हुई हैं , उनके चलते श्री राधाकृष्णन के लिए उपराष्ट्रपति के रूप में कई प्रकार की चुनौतियां उनका स्वागत कर रही हैं । विशेष रूप से जब वह राज्यसभा के सभापति के रूप में सभा का संचालन करेंगे तो जगदीप धनखड़ से भी कहीं अधिक बड़ी चुनौतियां उनके लिए विपक्ष की ओर से खड़ी मिलेंगी। जिनमें उनके विवेक, संयम और धैर्य की परीक्षा होगी। इस ' अग्नि परीक्षा' में उनका उत्तीर्ण होना बहुत आवश्यक है।
महाभारत के सभा पर्व में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि जब राज्यसभा के सदस्य अनर्गल शोर शराबा करें तो क्या उपाय अपनाना चाहिए ? इस पर राजनीति के महान मनीषी भीष्म पितामह ने कहा कि :- "युधिष्ठिर ! उस समय आपके लिए यही उचित होगा कि जिस प्रकार जंगल में कौवों की आवाज को हम अनसुना करके आगे निकल जाते हैं, उसी प्रकार ऐसे शोर शराबे की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए।"
यह बात सुनने में तो बड़ी सरल लगती है, परंतु जब बेसुरे सुरों की आवाज कानों में पड़ती है तो उस समय संतुलन बनाना बड़ा कठिन हो जाता है। कई बार ' कौए' भी हमारी शांति भंग कर देते हैं और हमारे धैर्य का बांध टूट जाता है। सिद्धांत का व्यावहारिक पक्ष बड़ा कठोर होता है। उसे संभालना हर किसी के वश की बात नहीं होती। परंतु फिर भी हम अपने नए उपराष्ट्रपति से अपेक्षा करते हैं कि वह भारत के महान लोकतांत्रिक संस्कारों का अनुकरण करते हुए उन्हें और भी अधिक मजबूती प्रदान करेंगे। उनका कार्यकाल निश्चय ही मान मर्यादाओं के सम्मान करने का काल होगा। वह राम भक्त हैं, इसलिए रामायण से शिक्षा लेंगे। वह सनातनी हैं ,इसलिए वेदों से शिक्षा लेंगे। वह हिंदुत्व के पुजारी हैं, इसलिए श्री कृष्ण जी और शिवाजी महाराज से शिक्षा लेंगे। उनके भीतर सनातन धड़कता है, इसलिए ' मनुस्मृति' जैसे धर्म शास्त्र से शिक्षा लेंगे और राजनीति को नए आयाम प्रदान करेंगे।


(लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
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