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जाति, वर्ण और संवैधानिक वर्गीकरण : हिन्दू समाज की विखंडनकारी राजनीति

जाति, वर्ण और संवैधानिक वर्गीकरण : हिन्दू समाज की विखंडनकारी राजनीति

— डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारतीय समाज आज जिस दुविधा में है उसका सबसे बड़ा कारण है – विभाजन की राजनीति। कभी यह विभाजन जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर और कभी क्षेत्र के नाम पर किया गया। विडम्बना यह है कि जो भारत विश्वगुरु था, जहाँ समन्वय और एकात्मता ही जीवन का आधार था, वही भारत आज संविधान प्रदत्त वर्गीकरणों और आरक्षण की नीतियों के कारण भीतर से खंडित होता जा रहा है।

नेता लोग अक्सर कहते हैं कि जातियाँ ब्राह्मणों की देन हैं। यह कथन जितना भ्रामक है उतना ही दुर्भावनापूर्ण भी। प्रश्न यह है कि यदि जातियाँ केवल ब्राह्मणों ने बनाई थीं, तो संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता के बाद समाज को General, OBC, SC, ST में क्यों बाँटा? और किस आधार पर बाँटा? क्या यह विभाजन समाज को मजबूत करता है या कमजोर?

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा था – “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।” अर्थात् वर्ण का आधार कर्म और गुण है, जन्म नहीं। फिर संविधान निर्माताओं ने जन्म और जाति को आधार क्यों बना दिया? यही सबसे बड़ा प्रश्न है।

भारत की आत्मा उसकी सांस्कृतिक एकता और आध्यात्मिक परंपरा में निहित है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि जिस भारत ने दुनिया को “वसुधैव कुटुम्बकम्” का संदेश दिया, उसी भारत को सबसे अधिक कमजोर किया गया विभाजन की राजनीति द्वारा।

नेता अक्सर कहते हैं कि जातियाँ ब्राह्मणों ने बनाई। प्रश्न यह है कि यदि जातियाँ केवल ब्राह्मणों की देन थीं, तो संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता के बाद समाज को General, OBC, SC और ST में क्यों बाँटा? यह वर्गीकरण किस आधार पर किया गया और क्यों आज तक जारी है?

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा था –
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।” (गीता 4/13)
अर्थात् चार वर्ण मैंने रचे, पर उनका आधार गुण और कर्म है, जन्म नहीं।
तो फिर संविधान में जन्म आधारित वर्गीकरण क्यों बना? यही सबसे बड़ा प्रश्न है।
1. गीता में वर्ण व्यवस्था का दार्शनिक आधार

गीता के अनेक श्लोकों में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है।


कर्म और गुण पर आधारित वर्ण


“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।” (गीता 4/13)
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वर्ण का आधार गुण और कर्म है, न कि जाति या कुल।


स्वधर्म पालन का महत्व


“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।” (गीता 3/35)
अर्थात् अपने कर्मानुसार धर्म का पालन श्रेष्ठ है, चाहे उसमें त्रुटि क्यों न हो।


समानता और निष्पक्षता का संदेश


“विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥” (गीता 5/18)
अर्थात् ज्ञानी व्यक्ति ब्राह्मण, गोरस, हाथी, कुत्ते और चांडाल में समान दृष्टि रखता है।

इन श्लोकों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में सामाजिक व्यवस्था मानव की योग्यता और कर्म पर आधारित थी।
2. जाति व्यवस्था का विकृतिकरण

कालांतर में जब समाज में लालच और स्वार्थ बढ़ा तो वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में बदल गई।


जन्म को आधार मान लिया गया।


ऊँच-नीच का भेदभाव उत्पन्न हुआ।


समाज टूटने लगा।

यहाँ केवल ब्राह्मणों को दोष देना ऐतिहासिक भूल है। राजाओं, सामंतों और आक्रांताओं ने भी जातिगत भेदभाव को पोषित किया।
3. अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति

ब्रिटिश राज ने जातीय विभाजन को संस्थागत रूप दिया।


1871 : Criminal Tribes Act द्वारा कई जातियों को अपराधी घोषित किया।


1901 की जनगणना से पहली बार जाति को सरकारी अभिलेखों में दर्ज करना शुरू किया।


अंग्रेजों की “Divide and Rule” नीति ने हिन्दू समाज को और तोड़ा।
4. संविधान और वर्गीकरण : धाराएँ

स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने जातिगत पिछड़ेपन को दूर करने हेतु विशेष प्रावधान रखे।


अनुच्छेद 15(4) – राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देता है।


अनुच्छेद 16(4) – सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिए आरक्षण।


अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता का उन्मूलन।


अनुच्छेद 46 – अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य कमजोर वर्गों की शिक्षा और आर्थिक हितों की विशेष देखभाल।


अनुच्छेद 340 – राष्ट्रपति को आयोग गठित करने का अधिकार, जिससे पिछड़े वर्गों की पहचान और कल्याण हेतु सुझाव मिले।

यानी संविधान ने जाति-आधारित असमानता मिटाने की बजाय उसी को संवैधानिक रूप से मान्यता दे दी।
5. मंडल आयोग और उसका प्रभाव

1979 में बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में आयोग गठित हुआ।


उद्देश्य : सामाजिक और शैक्षिक पिछड़े वर्गों की पहचान करना।


रिपोर्ट : 1980 में प्रस्तुत।

मुख्य बिंदु :


देश की 52% आबादी “पिछड़े वर्ग” में आती है।


सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 27% आरक्षण की सिफारिश।

1990 में प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने इसे लागू किया। इसके बाद देश में भीषण आंदोलन हुआ।
6. सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय


इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992)


सुप्रीम कोर्ट ने 27% OBC आरक्षण को वैध माना।


साथ ही कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता, यह सीमा तय की।


एम. नागराज केस (2006)


पदोन्नति में आरक्षण पर सीमाएँ निर्धारित कीं।


जर्नैल सिंह केस (2018)


पदोन्नति में SC/ST आरक्षण पर पुनः विचार, “क्रीमी लेयर” की अवधारणा लागू।


EWS आरक्षण (2022)


सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10% आरक्षण की वैधता दी।

इन निर्णयों से स्पष्ट है कि न्यायपालिका भी आरक्षण को अस्थायी उपाय मानती रही, परंतु राजनीति ने इसे स्थायी बना दिया।
7. हिन्दू समाज में विखंडन

संवैधानिक वर्गीकरण से हिन्दू समाज कई टुकड़ों में बँट गया –


SC, ST, OBC और General में अलगाव।


चुनावों में “जातीय समीकरण” सबसे बड़ा मुद्दा।


योग्यता की उपेक्षा, जन्म को आधार।

इससे हिन्दू समाज कमजोर हुआ जबकि अन्य समुदाय जातीय उपविभाजन से लगभग मुक्त रहे।
8. गीता का दृष्टिकोण बनाम संविधान का दृष्टिकोण
  • गीता : गुण और कर्म पर आधारित वर्ण।
  • संविधान : जन्म और जाति पर आधारित वर्गीकरण।

यही विरोधाभास समाज को कमजोर करता है।
9. समाधान : भारत की एकता का मार्ग


आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति होना चाहिए, न कि जन्म।


जातीय पहचान की जगह राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देना होगा।


गीता का मार्ग अपनाना होगा – कर्म और गुण आधारित समाज।


संवैधानिक समीक्षा कर 10 वर्ष की अस्थायी नीति को समाप्त करना होगा।
निष्कर्ष

भारत को सबसे अधिक चोट जाति आधारित विभाजन ने पहुँचाई। ब्राह्मणों पर दोषारोपण, अंग्रेजों की “Divide and Rule” नीति, और स्वतंत्र भारत में संविधान द्वारा जन्म आधारित वर्गीकरण – इन सबने मिलकर हिन्दू समाज को कमजोर किया।

यदि भारत को पुनः विश्वगुरु बनाना है तो हमें गीता की ओर लौटना होगा, जहाँ कहा गया –
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।” (गीता 3/35) अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुण और कर्म के अनुसार जीवन जीना चाहिए, न कि जन्म और जाति के आधार पर।

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