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पच्‍चवर्षीय नेता — क्या दें वोट?

पच्‍चवर्षीय नेता — क्या दें वोट?

डॉ. राकेश दत्त मिश्र 
हर पाँच साल पर चुनाव आते हैं। हमारे देश के लोकतंत्र में यह एक विधिवत प्रक्रिया है — जनता अपनी पसंद के प्रतिनिधियों को चुनती है और वे प्रतिनिधि पाँच साल के लिए कार्यभार संभालते हैं। पर क्या केवल पांच साल बाद मिलने और चुनाव के वादों के साथ ही गायब हो जाने वाले नेताओं को वोट देना चाहिए? क्या जनता का कर्तव्य सिर्फ मतदान तक सीमित है? और सबसे अहम — वोट देते समय पार्टी को देखें या योग्यता और क्षमता पर जोर दें? 

1. लोकतंत्र, प्रतिनिधित्व और समय-सीमा

लोकतंत्र का मूल भाव जनता का शासन है। प्रतिनिधि लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधि चुनकर शासन कार्यों का निर्वहन करवाती है। पाँच साल की अवधि को संविधानिक और व्यवहारिक कारणों से बनाया गया — यह अवधि सरकार को योजनाओं को लागू करने, नीति बनाने और कुछ टिकाऊ परिणाम दिखाने का समय देती है। पर यह अवधि तभी अर्थपूर्ण है जब प्रतिनिधि निरंतर कर्तव्यनिष्ठ और उत्तरदायी हों। केवल पांच साल का औपचारिक समय होने भर से वास्तविक जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होती।

जब नेता केवल चुनाव के समय ही दिखाई देता है—जिला, गांव या वार्ड की सड़कों की मरम्मत, नालियों की सफाई, पानी-बीज, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी रहती है—तो यह लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। प्रतिनिधि का कर्तव्य केवल निर्वाचन समय पर झंडा दिखाना नहीं, बल्कि निर्वाचित होने के बाद भी अपने मतदाताओं की आवाज़ उठाना, रोज़मर्रा की समस्याओं का समाधान करना और विकास के लिए निरंतर काम करना है।

2. क्या नेता पांच साल में न दिखने पर दोषी हैं?

यह सवाल सीधे-सीधे नेता की नीयत और व्यवहार पर निर्भर करता है। कुछ कारण जो नेता के अनुपस्थित रहने की व्याख्या कर सकते हैं:

अयोग्यता या आलस्य: कुछ नेता केवल चुनाव जीतने के बाद आराम कर लेते हैं या वे पारदर्शिता और कार्यछमता में कमी रखते हैं।


व्यवहारिक चुनौतियाँ: संसाधन की कमी, प्रशासनिक जटिलताएँ या पार्टी लाइन के कारण वे इच्छित परिणाम नहीं ला पाते।


भौगोलिक और संसदीय दायित्व: संसद/विधानसभा के काम और केंद्रीय/राज्य स्तरीय जिम्मेदारियाँ भी उन्हें व्यस्त कर सकती हैं।


घोषित प्राथमिकताओं का अभाव: यदि नेता ने चुनाव में विशेष वादे किए हों और वे पूरा न कर पाए तो यह उनकी जवाबदेही है।

सार यह कि अनुपस्थित रहने का कारण जांचने योग्य है — यदि वह अयोग्यता, भ्रष्टाचार या उदासीनता है तो उसे मत देना जोखिम है। पर अगर कारण जटिल प्रशासनिक स्थितियाँ हैं तो जनता को आवेग में आकर निर्णय नहीं लेना चाहिए — परंतु जवाबदेही माँगना चाहिए।

3. वोट देने का मापदंड: पार्टी या योग्यता?

यह एक बुनियादी द्विविधा है। भारत जैसे बहुपक्षीय लोकतंत्र में लोग कई बार वोटोँ में पार्टी के नाम, विचारधारा और गठबंधन को अधिक महत्व देते हैं। परन्तु प्रतिनिधि-निर्वाचन का मुख्य उद्देश्य है- "योग्य प्रतिनिधि" चुनना — जो क्षेत्र की समस्याओं को समझे, विधायी कार्यों में सक्रिय हो, और विकास के कार्यों को प्रभावी ढंग से निभा सके। नीचे दोनों पक्षों के तर्क दिए जा रहे हैं:
3.1 पार्टी के पक्ष में तर्क

नीतिगत एकरूपता: सरकार बनने पर पार्टी की नीतियाँ बड़े पैमाने पर लागू होती हैं। अगर जनता राष्ट्रीय या राज्य स्तर की नीति को समर्थन देती है तो पार्टी-आधारित वोट आवश्यक होते हैं।


प्रतिस्पर्धी विकल्प: कुछ इलाकों में केवल महाशक्ति पार्टी ही विकास कर सकती है क्योंकि उसे केंद्र/राज्य सरकारों से संसाधन मिलते हैं।


इशारेदार प्रबंधन: पार्टी के पास संगठनात्मक क्षमता और व्यापक योजना होती है, जो स्थानीय प्रतिनिधि से अधिक प्रभावी हो सकती है।
3.2 योग्यता के पक्ष में तर्क

प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व: योग्य प्रतिनिधि स्थानीय समस्याओं को समझकर तत्काल काम कर सकता है।


नैतिक और प्रशासनिक क्षमता: शिक्षित, पारदर्शी और लोकसेवा-प्रेरित प्रतिनिधि बेहतर लेखा-जोखा रखता है।


स्थानीय विकास की प्राथमिकता: कई बार पार्टी लाइन से हटकर स्थानीय नेता ही ग्राम-स्तर पर वास्तविक विकास करवा पाते हैं।

अंततः, पार्टी और योग्यता का मेल सबसे अच्छा है — मजबूत कार्यक्रम और नीति के साथ सक्षम और जवाबदेह प्रतिनिधि की आवश्यकता है। जहाँ पार्टी नीति ही खराब हो, वहाँ योग्यता भी सीमित प्रभाव डालेगी। और जहाँ प्रभावी नीति है पर प्रतिनिधि अयोग्य है, वहाँ भी विकास धीमा रहेगा।

4. वोटर को क्या देखना चाहिए — व्यावहारिक चेकलिस्ट

मतदाता अक्सर रचना, नाम और प्रत्याशी की लोकप्रियता पर निर्भर रहता है। पर सूझबूझ से निर्णय लेने हेतु एक सरल चेकलिस्ट उपयोगी होगी:

प्राथमिक अनुभव और शिक्षा: क्या प्रत्याशी के पास सामान्य प्रशासनिक या सामाजिक कार्य का अनुभव है? क्या शिक्षा और व्यवहारिक समझ है?


पारदर्शिता का रिकॉर्ड: क्या उनके खिलाफ भ्रष्टाचार या घोटाले की शिकायतें हैं? क्या उन्होंने सार्वजनिक खर्च का लेखा-जोखा रखा है?


स्थानीय सम्वेदना: क्या वे क्षेत्र की समस्याएँ जानते हैं? क्या उनका संपर्क स्थानीय समुदाय के साथ नियमित है?


नैतिकता और प्रतिबद्धता: क्या उन्होंने चुनाव पूर्व वादों की सूची दी थी और उन वादों में ईमानदारी दिखती है?


लंबी अवधि के लक्ष्यों की समझ: क्या उनके पास शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, कृषि और बुनियादी ढांचे के लिये स्पष्ट वैकल्पिक योजनाएँ हैं?


लोकनीति और दृष्टि: क्या वे सिर्फ छोटी-छोटी योजनाओं का वादा करते हैं या दीर्घकालिक सुधारों की बात करते हैं?


समूह और जाति राजनीतिकता: क्या उम्मीदवार ने केवल संकुचित वोट बैंक को संबोधित किया है या सभी वर्गों का हित ध्यान में रखा है?


जनसंपर्क: क्या चुनाव के बाद भी वे क्षेत्र में सक्रिय रहते हैं—समस्याओं की सुनवाई और समाधान के लिए?

इन बिन्दुओं पर खरा उतरने वाले उम्मीदवार को प्राथमिकता दें।

5. जवाबदेही — चयन के बाद क्या करें?

चुनाव केवल शुरुआत है; जब प्रतिनिधि चुना जा चुका है तब भी जनता की सक्रिय भागीदारी अपरिहार्य है। कुछ व्यवहारिक कदम:

नियमित मुलाकातें और जन सुनवाई: वार्ड/गांव की बैठकें और जनसुनवाई नियमित कराना।


लोक लेखा परीक्षा (Public Audit): स्थानीय विकास योजनाओं और पैसों के उपयोग पर समुदाय आधारित निगरानी।


सूचना का अधिकार (RTI) और कानूनों का उपयोग: सरकारी व स्थानीय कामकाज पर पारदर्शिता लाने के लिए आरटीआई का प्रयोग।


लोकशिकायत प्रणाली सक्रिय करना: चुनाव के बाद शिकायत निवारण के तंत्र को सशक्त करना।


मीडिया और सोशल मीडिया निगरानी: स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया का उपयोग कर प्रतिनिधियों की गतिविधियों पर नजर रखना।

यदि प्रतिनिधि बार-बार अनुपस्थित रहता है या अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, तो मतदाता अगली चुनाव में उसे नकार सकते हैं — पर उस तक पहुँच कर कारण भी समझना चाहिए और संगठनात्मक सुधारों का प्रयास करना चाहिए।

6. संस्थागत और संवैधानिक सुधार — दीर्घकालिक उपाय

व्यक्तिगत प्रयासों के साथ-साथ संस्थागत सुधार आवश्यक हैं ताकि नेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित हो सके:
6.1 रिकॉल (Recall) या प्रभावी ड्राफ्ट

कुछ लोकतंत्रों में 'रिकॉल' का प्रावधान है — अगर निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के विश्वास पर खरा नहीं उतरता तो उसे पद से हटाया जा सकता है। भारत में फिलहाल व्यापक रिकॉल प्रावधान नहीं है। लोकपाल, लोक लेखा समितियों, और बेहतर निगरानी प्रणाली के साथ रिकॉल-समतुल्य तंत्र विकसित किया जा सकता है।
6.2 प्रदर्शन-आधारित सूची और जनमत सर्वे

प्रत्येक प्रतिनिधि के लिए प्रदर्शन सूचकांक (Performance Index) विकसित किया जा सकता है — शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे, रोजगार सृजन, लोक-शिकायत निवारण आदि के मापदंडों के आधार पर। यह सूचकांक जनता को अगली बार बेहतर विकल्प चुनने में मदद करेगा।
6.3 पार्टी भ्रष्टाचार-निरोधक नियम

पार्टी को आंतरिक चुनाव, पारदर्शिता और प्रत्याशी-चयन में योग्यता को महत्व देने के लिए बाध्य किया जा सकता है। कानूनी नियम बनाकर पार्टी-फंडिंग और प्रत्याशी-योग्यता का सत्यापन आवश्यक किया जाना चाहिए।
6.4 लोक-पुरस्कार और दंड

सकारात्मक प्रोत्साहन (achievements visibility) और दंड, दोनों होने चाहिए — अच्छे प्रतिनिधियों के लिए सार्वजनिक मान्यता और पुरस्कृत करने की व्यवस्था, और अनिच्छुक/अपर्याप्त प्रतिनिधियों के खिलाफ नियमानुसार कार्रवाई।

7. गांव- नगर स्तर पर सशक्त शासन: पंचायती राज और स्थानीय निकाय

नीचे के शासन-स्तर को मजबूत कर के ही वास्तविक बदलाव संभव है। अगर पंचायत, नगरपालिका और वार्ड-स्तरीय संस्थाएँ सशक्त हों तो नागरिकों की समस्याएँ उसी स्तर पर हल हो सकती हैं — और प्रतिनिधि परपूर्ण रूप से निर्भरता कम होगी।

स्थानीय निकायों को वाजिब वित्तीय अधिकार, मानव संसाधन और स्वायत्तता दी जानी चाहिए ताकि वे सीधे लोगों की समस्याएं निपटाएं। इससे विधायक/महापौर आदि पर भी दबाव रहता है कि वे अपने क्षेत्र के लिए प्रभावी योजनाएं लाएं।

8. वोट बैंक बनाम लोक नीति — लोकतंत्र का संग्राम

भारतीय राजनीति में वोट बैंक की भूमिका निर्णायक है — जाति, समुदाय, धर्म और क्षेत्र के आधार पर दल रणनीति बनाते हैं। यह जहां समाज-परक असमानताओं की वजह बनता है, वहीं कई बार सॉर्ट-टर्म लाभ देता है। पर लोक नीति और विकास-उन्मुख राजनीति वोट-बैंक से ऊपर होनी चाहिए, क्योंकि दीर्घकाल में वही राज्य और समाज को समृद्ध बनाती है।

यह तभी संभव है जब मतदाता स्वयं जागरूक हों — सामुदायिक नेतृत्व उत्तरदायी बने और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी सामान्य मुद्दों को प्राथमिकता में रखें। वोट बैंक की राजनीति का मुकाबला करने के लिए सामाजिक-आर्थिक चेतना, गैर-राजनीतिक संगठनों और स्थानीय नेतृत्‍व का सशक्त होना आवश्यक है।

9. मतदाता शिक्षा — नागरिक का नैतिक और व्यावहारिक कर्तव्य

हमारी जिम्मेदारी सिर्फ वोट देना नहीं; सही उम्मीदवार चुनना और चुने गए प्रतिनिधि की गतिविधियों पर नजर रखना भी हमारा कर्तव्य है। कुछ व्यावहारिक सुझाव:

स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर जानकारी इकट्ठा करें — सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों पर ही ध्यान न दें।


उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि और टैक रिकॉर्ड देखें — पिछले कार्यों का रिकॉर्ड, किसी भी सार्वजनिक परियोजना में उनकी भागीदारी।


वोट दिन से पहले वादों का आकलन करें — जिन वादों को पूरा करने की संभावनाएँ हों उन्हें प्राथमिकता दें।


स्वतंत्र स्रोतों और रिपोर्टों पर भरोसा रखें — मीडिया, एनजीओ रिपोर्ट और स्थानीय निगरानी समितियों की सूचनाएँ लें।


प्राथमिकता-युक्त वोटिंग: जहाँ संभव हो, मतदाता समूह बनाकर चर्चा और सर्वे कर सकते हैं ताकि सामूहिक बुद्धि से निर्णय लिया जा सके।

10. वास्तविक जीवन के उदाहरण और सबक

भारत और दुनिया भर के कई अनुभव से पता चलता है कि जहाँ प्रतिनिधि लोकहित में सक्रिय रहे, विकास ठोस हुआ। दूसरी ओर, जहाँ नेता केवल चुनावों के समय दिखे, वहाँ भ्रष्टाचार, परियोजना-अधूरेपन और ठहराव आया। उदाहरण स्वरूप कुछ स्थानीय स्तर पर काम करने वाले विधायक/नागरिक-नेताओं की कहानियाँ हैं — जिन्होंने सालों से श्रम-धाराओं का निवेश बढ़ाया, नालों, पानी, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र बनवाए। उनके पीछे का साझा गुण था: निरंतर सहभागिता और समुदाय के साथ तालमेल।

वहीं कई स्थानों पर देखा गया कि बड़े वादे होते हैं — रोड, पुल, अस्पताल का उद्घाटन चुनाव के समय विस्तार से होता है — पर वे परियोजनाएँ अधूरी रहती हैं या गुणवत्ता में कमी रहती है। इसलिए प्रदर्शन-आधारित उत्तरदायित्व की आवश्यकता बढ़ती है।

11. निष्कर्ष और आह्वान

"पाँच साल में एक बार दिखाई देने वाले नेता" के प्रश्न का उत्तर केवल हाँ या ना में सीमित नहीं रखा जा सकता। वोट देते समय हमें निम्न बिंदुओं पर विचार करना चाहिए:

क्या नेता की प्राथमिकता विकास और पारदर्शिता रही है?


क्या उसने चुनाव के बाद भी क्षेत्र की सुनवाई और कार्यवाही की?


क्या पार्टी और प्रत्याशी दोनों मिलकर क्षेत्र के हित में काम करेंगे?

हमारे उत्तर का केंद्र होना चाहिए — योग्यता, पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकहित। पार्टी और विचारधारा आवश्यक हैं पर व्यक्तिगत योग्यता और क्षेत्र के प्रति जवाबदेही को प्राथमिकता देनी चाहिए।

यदि कोई नेता पाँच साल में भी आपकी सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की समस्याएँ नहीं सुलझा पाया, तो अगली बार उसे वोट न दें — पर सिर्फ

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