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अमेरिका - भारत संबंध : एक समीक्षा

अमेरिका - भारत संबंध : एक समीक्षा

डॉ राकेश कुमार आर्य

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को उनके जन्म दिवस पर फोन करना वैसे तो राजनीतिक शिष्टाचार में आता है और यह कोई बड़ी बात भी नहीं है, परंतु जिन परिस्थितियों के बीच डोनाल्ड ट्रंप ने प्रधानमंत्री से बातचीत करने का बहाना खोजा है, उनके मध्य दोनों राष्ट्र - अध्यक्षों के मध्य इस प्रकार की ' चर्चा' होना बहुत महत्वपूर्ण है।
हम सभी जानते हैं कि इस समय भारत और अमेरिका के संबंध नाजुक दौर से गुजर रहे हैं । रूस, चीन और भारत का एक साथ आना अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इससे वह हतप्रभ रह गए हैं। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत इतनी बड़ी भूमिका में आ सकता है ? - जिससे अमेरिका ही अलग-थलग पड़ जाएगा। इसके परिणामस्वरुप अमेरिका में बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किये हैं। उनकी असफल विदेश नीति के चलते लोगों ने उनसे त्यागपत्र देने की बात कही है।उनके अपने निकटस्थ लोगों ने भी भारत के साथ संबंधों में आई तल्खी को लेकर ट्रंप प्रशासन को सचेत किया है । पिछले दिनों यह चर्चा भी चलती रही कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत करने का प्रयास किया ,परंतु प्रधानमंत्री मोदी ने उनका फोन नहीं उठाया। इन सब बातों के चलते यदि अब ट्रंप ने भारत के प्रधानमंत्री से उनके जन्मदिवस के अवसर पर टेलीफोन से बातचीत की है तो इसे ' बातचीत करने का एक बहाना ' मानना चाहिए। निश्चित रूप से इस समय उन्होंने एक ' विजेता प्रधानमंत्री' से बातचीत की है। जिसने अमेरिका को उसकी औकात बताने का साहस किया है। और पहली बार उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग कर देने में सफलता प्राप्त की है।
अमेरिका पर इस बात का भी नैतिक दबाव है कि भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का परिचय देते हुए इस समय रूस यूक्रेन युद्धविराम के लिए भी अपना समर्थन व्यक्त किया है। इसके साथ ही इसराइल से अपने बहुत ही भावपूर्ण संबंध होते हुए भी भारत ने फिलिस्तीन के समर्थन में अपना हाथ उठाया है। ऐसे में अमेरिका यह भली प्रकार जानता है कि भारत की स्वतंत्र विदेश नीति पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाया जा सकता। फिर भी यह बात मानी जा सकती है कि राजनीति में आप किसी से भी बहुत देर ' कुट्टी' करके नहीं बैठ सकते। राजनीति में कुंठाओं के लिए स्थान नहीं होता। क्योंकि कुंठाएं राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया को बाधित करती हैं। संकीर्णताओं और कुंठाओं को त्यागकर उनसे ऊपर उठकर बातचीत का कूटनीतिक संवाद निरंतर स्थापित रखना पड़ता है। इस दृष्टिकोण से दोनों देशों के शासनाध्यक्षों का बातचीत करना सुखद है। हमने यह भी देखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने टैरिफ वार में जितना अधिक आक्रामक होकर भारत के बारे में अनाप-शनाप बका, उतना ही उनका राजनीतिक नुकसान हुआ। भारत ने अपनी कूटनीति के माध्यम से अमेरिकी राष्ट्रपति को धोकर रख दिया। इससे अमेरिकी राष्ट्रपति का बड़बोलापन उनके लिए स्वयं एक आफत बन गया। दोनों देशों के बीच शीर्ष स्तर पर संवाद स्थापित करने की ओर संकेत करते हुए अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने यह उम्मीद जताई है कि अंततः अमेरिका और भारत साथ आएंगे, क्योंकि यह वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अब अमेरिकी राष्ट्रपति ने आशा व्यक्त की है कि दोनों देश अतीत की कड़वाहटों को बुलाकर भविष्य पर ध्यान केंद्रित करके अपने संबंधों का निर्धारण करेंगे। यह एक अच्छा संकेत है। जिससे स्पष्ट होता है कि अमेरिका भी अब यह भली प्रकार जान गया है कि वह 21वीं सदी के सशक्त भारत के साथ सम्मानपूर्ण ढंग से बातचीत करके ही उसकी मित्रता का लाभ ले सकता है। यहां पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने 10 सितंबर को ही यह वक्तव्य दिया था कि भारत अमेरिका व्यापार वार्ताओं की बाधाओं को दूर करने पर बातचीत जारी रखेंगे।
उनका यह वक्तव्य अमेरिका भारत संबंधों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रकट करता है। जिसमें उन्होंने स्पष्ट तो ये नहीं कहा कि भारत को लेकर उनसे कुछ भूल हुई है, जिसे वह सुधारना चाहते हैं , परंतु उनके वक्तव्य का एक अर्थ ऐसा भी हो सकता है। भारत की वैश्विक मंचों पर निरंतर उपयोगिता इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि भारत के बारे में लोगों की स्पष्ट धारणा यह है कि यह देश युद्धोन्मादी देश नहीं है। यह शांति चाहता है और शांति की वास्तविक अवधारणा को स्थापित करने के लिए उसके पास एक स्पष्ट चिंतन है। अमेरिकी राष्ट्रपति भारत की इस गंभीर जिम्मेदारी को भली प्रकार जानते हैं। साथ ही वैश्विक मंचों पर भारत के प्रति लोगों की इस स्वाभाविक धारणा को भी जानते हैं। इसलिए वह भारत को खोना नहीं चाहते।
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। आईटी, सेवा क्षेत्र, ऊर्जा और तकनीकी निवेश में इन दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच गहरा सहयोग है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी गतिरोध को स्थाई शत्रुता में परिवर्तित करने के संकेत न देकर नरमी का संकेत देकर अमेरिकी राष्ट्रपति को यह स्पष्ट किया है कि दोनों देशों की जन अपेक्षाओं का सम्मान करना उनका उद्देश्य है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि दो देशों के शीर्षस्थ राजनीतिक व्यक्तित्वों के टकराव से इतिहास में अनेक बार भयंकर जनहानि हुई है। आज भी यूक्रेन के राष्ट्रपति की व्यक्तिगत अहंकारी भावना के कारण ही यूक्रेन युद्ध में टूट चुका है। इसलिए व्यक्तिगत अहंकार को सीमित रखकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देकर काम करना राजनीति की अनिवार्यता होती है। हमें प्रत्येक देश से अपने राष्ट्रीय हितों का सम्मान करवाना आना चाहिए, अर्थात झुकती है दुनिया झुकाने वाला चाहिए। यदि कोई देश हमारे राष्ट्रीय हितों का सम्मान कर रहा है अर्थात आपके सामने झुक गया है या झुकने का संकेत दे दिया है या झुकने को तैयार हो गया है तो उससे आगे जाकर उस देश से शत्रुता माल लेना अच्छा नहीं है। हम सबके लिए यह बहुत ही अच्छी सूचना है कि भारत अमेरिका रक्षा सहयोग पिछले एक दशक में बहुत तेजी से बढ़ा है। अमेरिका ने भारत को महत्वपूर्ण रक्षा तकनीक उपलब्ध कराई है। हां, इतना अवश्य है कि वह पाकिस्तान को लेकर भारत के साथ दोरंगी चाल खेलता रहा है । पाकिस्तान को अपेक्षा से अधिक सहयोग और समर्थन देना अमेरिका की कूटनीति हो सकती है या उसकी विदेश नीति का एक अंग हो सकता है । परंतु यह भारत के लिए कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस बिंदु पर भारत को सदैव सतर्क रहने की आवश्यकता है। हमें जितना चीन से सावधान रहने की आवश्यकता है, उतना ही अमेरिका से भी सावधान रहने की आवश्यकता है। यद्यपि यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सीट के लिए एक बार अमेरिका तैयार हो सकता है, परंतु चीन नहीं। इस दृष्टिकोण से भारत को अपनी विदेश नीति को अत्यंत सावधानी के साथ साधने की आवश्यकता है। हमें अपनी दूरगामी रणनीति और विदेश नीति को निर्धारित करते समय इस तथ्य का भी ध्यान रखना पड़ेगा।
नेपाल में जो कुछ भी हुआ है उसमें किन-किन शक्तियों का हाथ रहा है ? इससे रहस्य का पर्दा बहुत कुछ हट गया है। धीरे-धीरे जो शेष है, वह भी हट जाएगा। वहां पर ' मोदी - मोदी' के नारे लगे हैं। नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के समर्थन में भी नारे लगे हैं। इसके साथ ही वहां की नई प्रधानमंत्री श्रीमती कार्की द्वारा भी भारत के प्रति सहयोगी और मित्रता पूर्ण दृष्टिकोण व्यक्त किया गया है, किंतु इन सबका वास्तव में क्या अर्थ है ? यह देखना अभी शेष है। ये सभी नारे या गतिविधियां हवाई बातें भी हो सकती हैं और इनका कोई राजनीतिक अस्तित्व भी हो सकता है। राजनीति में विभ्रम पैदा करना भी कूटनीति का एक अंग होता है। वास्तविकता बहुत कुछ देर बाद जाकर स्पष्ट होती है। कहने का अभिप्राय है कि नेपाल की घटनाओं से हमें बहुत अधिक सतर्क रहना है। किसी प्रकार की भ्रांति नहीं पालनी है। हां, यदि नेपाल हिंदू राष्ट्र बनता है तो उसे हिंदू राष्ट्र बनाने में भारत को अपना सहयोग अवश्य देना चाहिए। नेहरू की उस मूर्खता को दोहराने की आवश्यकता नहीं है, जब उन्होंने 1947 में नेपाल के तत्कालीन महाराजा के नेपाल के भारत में विलय के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। यदि आज की तारीख में नेपाल हिंदू राष्ट्र के रूप में ही भारत के साथ आना चाहता है तो भारत को इस कार्य में नेपाल की सहायता करनी चाहिए। यदि ऐसा होगा तो अमेरिका को एशियाई मामलों में हस्तक्षेप करने से दूर रखा जा सकेगा। इसके साथ ही नेपाल और भारत स्थाई रूप से एक साथ आकर काम करने पर सहमत हो सकेंगे। यदि नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाता है और भारत उसमें अपना सहयोग देता है तो इससे चीन की वास्तविकता का भी पता चल जाएगा कि वह वास्तव में ही भारत के साथ मित्रता पूर्ण संबंध चाहता है या फिर उसकी सोच में कोई दोगलापन है ?
वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद को लेकर अमेरिका भारत के साथ खड़ा हुआ दिखाई दिया है, परंतु इसी मुद्दे को लेकर जब भारत और पाकिस्तान में तनाव होता है तो अमेरिका दोगला हो जाता है। तब वह पाकिस्तान की ओर झुका हुआ दिखाई देता है। उसका यह दोगलापन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उसके चरित्र को उजागर कर देने के लिए पर्याप्त है। भारत को यह सोचना होगा कि अमेरिका चाहे कितना ही निकट आने का नाटक करे, परंतु उसका राजनीतिक दोगलापन उसके स्वभाव में सम्मिलित होने के कारण उसका ' राष्ट्रीय चरित्र' है। स्वभाव है। जिसमें परिवर्तन संभव नहीं है। यदि ऐसा है तो अमेरिकी राष्ट्रपति के इस टेलीफोन को एक अच्छा संकेत मानकर भी आप भविष्य के अमेरिका भारत संबंधों का एक निर्णायक मोड़ नहीं कह सकते। ....मंजिल अभी दूर है। रास्ते में कितने ही उतार चढ़ाव आएंगे और ऊबड़खाबड़ रास्तों से कितने ही स्थानों पर हमें फिसलने, गिरने और जोखिम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।.... यद्यपि इसका अभिप्राय यह नहीं कि रास्ता छोड़ दिया जाए या मित्रता के लिए बढ़ा हुआ हाथ झटक दिया जाए.... रास्ता भी नहीं छोड़ना है, मित्रता के लिए बढ़ा हुआ हाथ भी पकड़े रखना है ....और सावधान भी रहना है । बस, यही सोच कर आगे चलना होगा।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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