पुराने जमाने का गाँव
जय प्रकाश कुवंर
अब कहाँ मिली पहिले वाला गाँव।
अब कहाँ मिली उ बरगद के छांव।।
सब लोग के घर जबसे छतदार भइल।
खपड़ा नरिया वाला घर सब उजड़ गइल।।
नाम खातिर गाँव अबहियों अपना बा।
बर, पकड़ी, नीम गाछ देखल अब सपना बा।।
मंड़ई बनावेवाला, छप्पर छवावेवाला,
पुरनका विश्वकर्मा लोग सब मर गइल।
बिल्डिंग बनावेवाला, गिट्टी, छड़, सीमेंट के बात समुझावेवाला,
नया नया विश्वकर्मा लोग के जनम भइल।।
सुख शांति से रहे वाला पुरनका परिवेश गइल।
महल अटारी में जब से लोग रहे लागल,
गाँव से लेकर शहर तक सब जगह,
जेने देखीं तेने, अशांति के निवेश भइल।।
गाँव में बरगद का छांव तले बैठकर,
सब लोग आपन सुख दुख बतियावत रहे।
हजारों दुख रहलो पर भी,
मिल जुल के सबकर सबे निपटावत रहे।।
सुख दुख पड़ला पर अब केहू ,
अपना घर से बाहर ना आवता।
सब लोग अपना महल में बैठल,
अपना मन के जैसे जैसे समुझावता।।
मड़ई पलानी आउर बरगद के छांव वाला युग,
अपना देश आउर गाँव में रामराज रहे,
उ युग देखते देखते कहाँ चल गइल।
जब से शहर आउर महल अटारी बने लागल,
समाज में छोटका बड़का के मेलजोल खतम भइल।।
घुमने खातिर शहरी लोग जंगल पहाड़ जाता।
गाँव के लोग आपन बरगद, नीम, पकड़ी कैसे भुलाता।।
पिकनिक स्थल पर अब झोंपड़ी खोजाता।
झोपड़ी वाला गाँव लोग कैसे भुलल जाता।।
पैसा से सुकून केहू कबो ना खरीदे पाई।
एक दिन फिर लोग गाँव में ही लौट के आई।।
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