भ्रम में जीवन बीत गया
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"शोर मचाया, दुनिया दौड़ी
पर खाली था मन का घोड़ा।
रूप-रंग की चाहत लेकर
हर माया को जोगा छोड़ा।
मंदिर मस्जिद दौड़ा-दौड़ा,
भीतर लेकिन कुछ ना जोड़ा।
कांच सम हर चीज़ चकाचक,
पर आत्मा को तोड़ा-मरोड़ा।
कितनी राहें, कितने रस्ते,
सबने केवल भ्रम ही बोला।
चेहरे पे मुस्कान बड़ी थी,
अंदर ठहरा डर का कोला।
सब कुछ पा के भी ना पाया,
क्या था सच्चा, क्या था झूठा।
ना रोशनी, ना अंधियारा,
बस भटका, और खुद को लूटा।
राम को भी शब्दों में बाँधा,
मन के भीतर दीप ना फूटा।
अब जीवन की साँझ हुई है,
पर आत्मा है सूनी, रूठा।
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