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महाबीर मंदिर में आदम-कद प्रतिमा स्थापना: श्रद्धा का सम्मान या अनुचित परम्परा?

महाबीर मंदिर में आदम-कद प्रतिमा स्थापना: श्रद्धा का सम्मान या अनुचित परम्परा?


लेखक — रमेश कुमार चौबे

पटना के महाबीर मंदिर का इतिहास और उसकी पवित्रता हमारे समाज की धार्मिक तथा सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है। मंदिर केवल ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं, बल्कि उस समुदाय की आस्था, परम्परा और जनहित की साझा संपदा है। इसलिए जब किसी व्यक्ति के प्रति सम्मान प्रकट करने की बात उठती है, तो सार्वजनिक और धार्मिक स्थल के स्वरूप, आत्मा और उद्देश्य को ध्यान में रखना अनिवार्य है। स्वर्गीय किशोर कुणाल के प्रति सम्मान की भावना को मैं नकारता नहीं करता — उनके द्वारा मंदिर के कुशल प्रबंधन और चढ़ावे के सदुपयोग से जो योगदान रहा, उसके लिए उन्हें सम्मान मिलना चाहिए। पर सवाल यह है: क्या मंदिर के मुख्य गर्भगृह या प्राचीन स्थल पर आदम कद प्रतिमा स्थापित करना उचित है?

सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि किसी मंदिर का स्वरूप और उसका धार्मिक उद्देश्य क्या होता है। मंदिर भगवान् के दर्शन और भक्ति का स्थान है — यहाँ श्रद्धा का केन्द्र भगवान् हैं। मंदिर के प्रांगण में सांस्कृतिक कार्यक्रम, सेवा-कार्य या शिल्प-स्मारक हेतु स्थान होना संभव है, परंतु मंदिर को किसी एक परिवार की निजी जागीर या बपौती संपत्ति समझकर उस पर स्थायी पहचान चिन्हों का दबदबा बनाना गम्भीर विषय है। अगर कोई परिवार या व्यक्ति मंदिर के विकास में अनुकरणीय योगदान देता है, तो उसका आभार व्यक्त करने के अनेक सभ्य और पारंपरिक तरीके हैं — स्मृति पट, सम्मान-प्राप्ति समारोह, केंद्र के बाहर स्मारक स्थल, पुस्तक-समर्पण, सेवा निधि का नामकरण इत्यादि — जिनसे योगदान का सम्मान तो होता है और मंदिर की धार्मिक पवित्रता भी अक्षुण्ण रहती है।

दूसरी बात — सामाजिक धारणा और सार्वजनिक भान। जब किसी परिवार द्वारा मंदिर पर अधिकार जताने का प्रयास किया जाता है, तब आम नागरिकों में यह धारणा जन्म ले सकती है कि धार्मिक संस्थान पर निजी स्वामित्व की छाप बन रही है। यह धारणा मंदिर की निष्पक्षता और समाज में उसकी स्वीकार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकती है। अगर यह प्रवृत्ति प्रचलित हो गई, तो पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता तथा संपत्ति का हस्तांतरण धार्मिक संस्थानों के माध्यम से हो सकता है — जो कि मंदिरों के आध्यात्मिक और समाजिक उद्देश्य के विरुद्ध है। इसे मैं किसी तरह स्वीकार्य नहीं मानता।

तृतीयबिंदु — सम्मान और स्थान का साम्यबोध। स्वर्गीय किशोर कुणाल ने निश्चित रूप से मंदिर के प्रबंधन में योगदान दिया और उसे व्यवस्थित स्वरूप देने में उनकी भूमिका रही होगी। उनके प्रति आदर व सम्मान होना चाहिए; पर यह सम्मान उस स्थान और तरीके से होना चाहिए जो मंदिर के मूल उद्देश्य के साथ संगत हो। उदाहरण के तौर पर मंदिर के परिधि में एक स्मारक प्रांगण, सेवा कक्ष का नामकरण, या वार्षिक स्मृति दिवस का आयोजन — ये तरीके न केवल श्रद्धा व्यक्त करते हैं बल्कि सार्वजनिक सहमति और धार्मिक मर्यादा का भी ध्यान रखते हैं। वहीं, गर्भगृह या मूर्तिपूजा के समक्ष आदम कद प्रतिमा लगाना — एक तरह से भगवान के साथ तुलना का भाव देता है — जो धार्मिक संवेदनशीलता को आहत कर सकता है।

चौथा बिंदु — पारिवारिक अधिकार बनाम सार्वजनिक धार्मिक संस्थान। किसी परिवार का यह अधिकार कि वे मंदिर को अपना पैतृक सम्पत्ति मानें या उसे अपने स्वामित्व में समझें— इसे रोकने का उद्देश्य न तो परिवार के प्रति कटुता है और न ही किसी व्यक्ति के योगदान की अवहेलना। यह केवल एक संगठित समाज और धार्मिक संस्था की रक्षा की बात है। मंदिरों का प्रबंधन पारदर्शी, सार्वजनिक और समुदाय-आधारित होना चाहिए ताकि किसी भी तरह की मनमानी वा असंतुलन न हो — अन्यथा मंदिर के प्रति जनता का भरोसा कमज़ोर होगा।

अंततः मेरा यही निष्कर्ष है — स्वर्गीय किशोर कुणाल के प्रति सम्मान चाहिए, पर मंदिर में उनका आदम कद प्रतिमा स्थापित करना उचित नहीं है। यह न केवल मंदिर की धार्मिक गरिमा पर प्रश्न उठाता है बल्कि समाज में अस्वस्थ वंशगत अधिकार की भावना को भी बढ़ावा देता है। मुझे लगता है कि अगर महाबीर मंदिर प्रांगण में या मंदिर से जुड़े किसी सार्वजनिक स्थल पर, सर्वसम्बोधन और पारंपरिक मर्यादा के साथ एक स्मृतिपट्ट या सेवा-ग्राम का नामकरण किया जाए — तो यह अधिक संतुलित और सम्मानजनक होगा। इससे श्रद्धा भी बनी रहेगी और सार्वजनिक स्वत्व व परम्परा का भी संरक्षण होगा।

अंत में एक अपील — धार्मिक स्थलों की पवित्रता और सार्वजनिक हित को प्राथमिकता दें। यदि परिवार और सम्बन्धी इस बात को समझें कि सम्मान पाने के कई सभ्य रास्ते हैं जो मंदिर की गरिमा को प्रभावित नहीं करते, तो समाज, परिवार और मंदिर — सबका भला होगा। आम आदमी, समाजसेवी और धर्म समर्पित नागरिकों को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि धार्मिक संस्थान किसी व्यक्ति या परिवार की जागीर न बनें; बल्कि वे सबके अराध्य और समाजहित के केन्द्र बने रहें। (लेखक का यह आलेख महाबीर मंदिर की पवित्रता और सार्वजनिक हित के दृष्टिकोण से लिखा गया है — उद्देश्य किसी व्यक्तिगत सम्मान को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि धर्म स्थल और समाज के हितों का संतुलित संरक्षण सुनिश्चित करना है।)


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