भारतीय संस्कृति: स्मृतियों की नदी में बहता बचपन और बदलती सामाजिक चेतना
सत्येन्द्र कुमार पाठक
जीवन की धारा में बहते हुए कई पड़ाव आते हैं, जो हमें पीछे मुड़कर देखने पर मजबूर कर देते हैं। जब हम पीछे देखते हैं, तो एक ऐसी दुनिया नज़र आती है, जहाँ मिट्टी की सोंधी खुशबू, पेड़ों की हरी-भरी डालियाँ और रिश्तों की गर्माहट जीवन का सार हुआ करती थी। यह वही दुनिया थी, जिसका अनुभव हमारे पूर्वजों ने किया और जिसे हमने भी कुछ हद तक जिया। यह एक ऐसा दौर था, जब भारतीय संस्कृति अपने सबसे शुद्ध और सरल रूप में मौजूद थी, जब जीवन केवल भौतिक सुखों के पीछे भागने का नाम नहीं था, बल्कि आपसी संबंधों और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर जीने का नाम था। हमारे बचपन की यादें, जो ग्रामीण जीवन से जुड़ी हैं, आज भी मन को सुकून देती हैं। उन दिनों, त्योहार केवल पूजा-पाठ का माध्यम नहीं थे, बल्कि पूरे गाँव के मिलन का उत्सव होते थे। मकर संक्रांति हो या होली, गाँव के सभी लोग एक साथ मिलकर स्नान करते, खेलते और खाते-पीते थे। नदी किनारे पेड़ों की डालियों पर झूलना, कबड्डी और कुश्ती का खेल खेलना, और दोस्तों के साथ खेतों में घूमना – ये सब ऐसे अनुभव थे, जिन्होंने हमें प्रकृति और अपनेपन का एहसास कराया। गेरूए कपड़े पहनकर गाय चराना और खेतों से मकई, चना, मटर उखाड़कर 'होरहा' का आनंद लेना, यह सब आज की दुनिया में एक सपना लगता है।
उस समय, परिवार और समाज का ताना-बाना बहुत मज़बूत था। व्यक्तिवाद नहीं, बल्कि भाईचारा जीवन का आधार था। माता-पिता, भाई-बहन, सभी एक साथ एक छत के नीचे रहते थे। जातिवाद की भावना नहीं थी, बल्कि आपसी संबंधों की कद्र थी। बुजुर्गों और गुरुओं के प्रति सम्मान स्वाभाविक था। हर बच्चा विद्यालय जाने से पहले अपने माता-पिता के चरण छूकर आशीर्वाद लेता था। यह एक ऐसी परंपरा थी, जिसने बच्चों को संस्कार और विनय सिखाए। माँ की लोरी और दादी की कहानियाँ सिर्फ़ मनोरंजन का साधन नहीं थीं, बल्कि ये हमारे नैतिक मूल्यों की नींव रखती थीं। दादा की बातें जीवन के अनुभव और ज्ञान का खज़ाना थीं, जो हमें सही-गलत का फर्क़ बताती थीं।
सत्यनारायण भगवान की पूजा हो या कोई और त्योहार, पड़ोसी और रिश्तेदार बिना बुलाए ही पहुँच जाते थे। सभी मिलकर कीर्तन गाते, प्रसाद बनाते और एक-दूसरे के साथ बाँटते थे। हर शनिवार को गुरुजी के लिए शिष्य अरवा चावल और गुड़ लाते थे, जिससे गणेश जी की पूजा होती थी। यह एक ऐसा उदाहरण था, जहाँ शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं थी, बल्कि गुरु-शिष्य परंपरा और सहयोग की भावना पर आधारित थी। सुख और दुख, दोनों में पूरा गाँव एक साथ खड़ा होता था। यह सामाजिक चेतना और एकता की ऐसी मिसाल थी, जो आज के दौर में दुर्लभ हो गई है।
दुर्भाग्यवश, समय के साथ इस सुनहरे युग का अंत होता गया। समाज में एक बड़ा बदलाव आया। आपसी भाईचारा और समाज सेवा की भावना धीरे-धीरे कम होती गई और उसकी जगह व्यक्तिगत स्वार्थ ने ले ली। राजनीतिक नेताओं ने जातिगत भावनाओं को हवा दी, जिससे लोगों के बीच आपसी सद्भाव कम हो गया। गाँव की वह सामुदायिक चेतना, जो एक-दूसरे का हाथ थामे रखती थी, अब जातिवाद, धर्मवाद और क्षेत्रवाद के दलदल में फँस गई है। आज, हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहाँ पड़ोसी भी एक-दूसरे से अनजान हैं। एक छत के नीचे रहने वाले परिवार भी एक-दूसरे से कटे हुए हैं। त्योहार और समारोह अब एक दिखावा बन गए हैं, जहाँ लोग केवल अपनी पहचान और हैसियत दिखाने जाते हैं। पुरानी परंपराएँ और संस्कार धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। बच्चों को अब माँ की लोरी की जगह मोबाइल और टीवी की कहानियाँ मिलती हैं, और दादा-दादी की बातें सुनने का समय किसी के पास नहीं है।
यह बदलाव केवल सामाजिक ही नहीं, बल्कि मानसिक भी है। हम एक ऐसे युग में पहुँच गए हैं, जहाँ हमने रिश्तों की गर्माहट को छोड़कर भौतिक सुख-सुविधाओं की ठंडी दुनिया को अपना लिया है। हमने अपनी जड़ें काट दी हैं और एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ अकेलेपन और अलगाव के सिवाय कुछ नहीं है।क्या हम सचमुच इस बदलाव से खुश हैं? क्या यह प्रगति है, जहाँ हम एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं? हमारे बचपन की वह सादगी, वह भाईचारा और वह प्रकृति के साथ जुड़ाव आज भी हमें एक बेहतर जीवन का रास्ता दिखाते हैं। शायद यह समय है कि हम पीछे मुड़कर देखें और उन मूल्यों को फिर से अपनाएँ, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पाएँगे, जहाँ सुख और शांति का अनुभव केवल यादों में ही नहीं, बल्कि हमारे वर्तमान और भविष्य में भी होगा ।
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