गया से गयाजी
डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
जहाँ तक मुझे ज्ञात है , गया को गयाजी करने का प्रस्ताव सबसे पहले गयाजी विकास परिषद् में लिया गया था ।इसे सरकार को भेजा गया होगा ।सरकार से इसकी पुष्टी हेतु प्रमाण मांगे गए होंगे ।उसी समय तत्कालीन जिलापदाधिकारि आदरणीय डॉ त्यागराजन ने इस विषय पर प्रमाण मांगा था ।उस समय मैं डॉ रामकृष्ण मिश्र एवं डॉ सुदर्सन शर्मा के साथ जयपुर एक कार्यशाला में था ।प्रमाण की मांग की प्रवणता को ध्यान में रखकर जो उस समय मस्तिक में था -भेज दिया था । कौन जानता था -वही लेख गया से गयाजी होने का आधार बनेगा ।
इस लेख का आधार स्तम्भ बना, धर्मायण ,महावीर मंदिर पटना के हिंदी संस्कृत के अधिकारी विद्वान संपादक डॉ भवनाथ झा का आलेख - “गयाजी” शब्द का प्रयोग : एक सांस्कृतिक और भाषिक परम्परा”
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक स्थान, प्रत्येक नदी, प्रत्येक नगर केवल भौगोलिक या भौतिक इकाई नहीं है, बल्कि वह जीवंत रूप में हमारे हृदय और श्रद्धा का विषय भी है। गया ऐसा ही नगर है, जिसकी प्रतिष्ठा प्राचीन काल से ही पितृकर्म और मोक्षधाम के रूप में रही है।
इतिहास और उत्पत्ति
गया-क्षेत्र की स्थापना का सम्बन्ध प्राचीन पौराणिक परम्परा से है। ब्रह्मा के पौत्र अमूर्तरयस् के पुत्र राजा गय ने इस नगरी की स्थापना की थी।
अमुर्तरजसो नामःदर्मारण्य महामतिः।
चक्रेपुरवरं राजा वसुनामगिरिब्रजम् ॥ बा रा 32/17
तस्यां गिरिवरः पुण्यो गयो राजर्षि सत्कृतः।
शिवं ब्रह्मसरो यत्र सेवितं त्रिदर्शार्षिभिः ॥ महाभारत -वन पर्व/तीर्थ पर्व - 87/08
ब्रह्मा के पौत्र और अमुर्तरयस् के पुत्र राजा गय के द्वारा स्थापित होने के कारण यह नगरी पुज्य हो
गई ।सनातन का आदि ग्रंथ बाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में इसकी चर्चा है कि यहाँ ब्रह्मा ने यज्ञ किया था -
तभी से यह स्थान पितृकर्म के लिए परम पुण्यदायी माना गया। इसी कारण इस नगर का नाम राजा के नाम पर गय पड़ा।
संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह नाम पुंल्लिंग में ‘गय’ है। परन्तु जब नगर का अर्थ नगरी, पुरी या पुण्यभूमि के रूप में लिया गया तो वह स्त्रीलिंग में गया कहलाया। यही कारण है कि हम आज तक इसे गया नगरी के नाम से जानते हैं।
भारतीय परम्परा में स्त्रीलिंग स्थाननाम
हमारी परम्परा रही है कि जिन स्थानों को हम पूज्य मानते हैं, उन्हें स्त्रीलिंग रूप देकर देवी की भाँति सम्मानित करते हैं।;जैसे—
• गंगा माता, यमुना माता
• अयोध्या, मथुरा, काशी, काञ्ची, अवन्तिका
• पुरी, द्वारावती इत्यादि
ये सभी स्थान हमारे लिए केवल भौगोलिक बिंदु नहीं, बल्कि आदरणीय, जीवंत, मातृस्वरूपा शक्तियाँ हैं। इसी क्रम में गया भी देवी के रूप में मानी गई और व्याकरण की दृष्टि से ‘गय’ शब्द में टाप् प्रत्यय लगाकर ‘गया’ की सिद्धि हुई।
मानवीकरण और देवीकरण की परम्परा
भारतीय संस्कृति में मानवीकरण (Personification) अत्यन्त प्रबल रहा है। हम नदी को केवल जल की धारा नहीं मानते, बल्कि माता रूप में देखते हैं। गंगा नदी की धारा हमारे लिए गंगा माता है। भारतभूमि हमारे लिए भारत माता है। गुप्तकाल से ही गंगा और यमुना की मूर्तियाँ नारी रूप में बनायी जाती रही हैं—कभी मकरवाहिनी, कभी कच्छपवाहिनी। यही परम्परा गया पर भी लागू होती है।
जी’ और ‘जू’ का आदरसूचक प्रयोग
सम्मान प्रदर्शित करने के लिए हमारी बोली में ‘जी’ लगाना अत्यन्त स्वाभाविक है।
• गंगा → गंगाजी
• यमुना → यमुनाजी
• अयोध्या → अयोध्याजी
• द्वारका → द्वारकाजी
जी’ का यह प्रयोग उत्तर भारत में प्रचलित ‘जू’ का हिंदी रूप है। लोकजीवन में आज भी हम दाउजू, कृष्णजू जैसे शब्द बोलते हैं। तुलसीदास ने कवितावली में लिखा—
“नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू।”
यहाँ जू स्पष्ट रूप से आदरसूचक रूप में आया है।
गयाजी’ का ऐतिहासिक साहित्यिक प्रमाण
- अब प्रश्न यह है कि ‘गयाजी’ का प्रयोग कब से शुरू हुआ। इसका उत्तर हमें 19वीं शताब्दी से मिलता है—
• 1874 ई में प्रकाशित हरिश्चन्द्र पत्रिका के नाटक रेल का खेल में ‘गयाजी’ शब्द मिलता है।
• 1882 ई में प्रकाशित प्रसिद्ध ग्रन्थ सुखसागर में इसका प्रयोग हुआ।
• 1890 ई में प्रकाशित श्यामलदास कृत वीरविनोद में भी गया के लिए गयाजी प्रयोग मिलता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 19वीं शती से ही गया के लिए ‘गयाजी’ नाम का प्रयोग आदरसूचक रूप में प्रचलन में आ गया।
गयाजी—संस्कार और श्रद्धा का प्रतीक
गंगा को गंगाजी, यमुना को यमुनाजी, अयोध्या को अयोध्याजी कहने की परम्परा जिस प्रकार हमारी संस्कृति में सम्मान व्यक्त करने की सहज प्रवृत्ति है, उसी प्रकार गया को ‘गयाजी’ कहना भी हमारी श्रद्धा का स्वाभाविक परिणाम है। “गया” हमारे लिए केवल एक नगर नहीं, बल्कि एक पुण्यभूमि, एक देवस्वरूपा शक्ति, एक मातृरूपा देवी है। जब हम गयाजी कहते हैं, तो उसमें केवल नगर का नाम नहीं होता, बल्कि उसमें हमारी संस्कृति का आदर, श्रद्धा, और आत्मीयता झलकती है। यही कारण है कि ‘गयाजी’ का प्रयोग मात्र भाषिक परम्परा नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना का दर्पण है |
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