"स्वार्थान्धता और मानवत्व का क्षरण"
उपरोक्त उद्धरण मानवीय अस्तित्व के गूढ़ रहस्य का उद्घाटन करता है। मानव का सार केवल देहधारण में नहीं, अपितु उसकी विवेकशीलता, त्यागप्रवृत्ति एवं सामुदायिक उत्तरदायित्व में निहित है। जब वह अपने संकुचित अहंकार एवं स्वार्थपरता के बंधन में जकड़ जाता है, तब उसकी चेतना संकुचित होकर पशुता की सीमाओं में विलीन हो जाती है। राष्ट्र एवं समाज मनुष्य की आत्मा का विस्तार हैं; अतः जो व्यक्ति उन्हें उपेक्षित कर आत्मकेंद्रित जीवन जीता है, वह वस्तुतः आत्मविनाश की ओर अग्रसर होता है।
दार्शनिक दृष्टि से विचार करें तो स्वार्थान्धता अज्ञान का रूप है, एवं अहंकार उससे भी गहनतम तमस का आवरण। इन दोनों के प्रभाव से मनुष्य का विवेक नष्ट होता है तथा उसका चित्त केवल इन्द्रिय-सुख तक सीमित रह जाता है। किंतु जब वही मनुष्य अपने ‘अहं’ को व्यापक ‘हम’ में रूपांतरित करता है, तब उसके भीतर से परोपकार, राष्ट्रनिष्ठा एवं लोकमंगल की ज्योति प्रस्फुटित होती है। यही रूपांतरण पशुता से मानवता की ओर, एवं मानवता से दिव्यता की ओर ले जाता है। अतः यदि मानव को अपने गौरव को अक्षुण्ण रखना है, तो उसे स्वार्थ एवं अहं के अंधकार को परे हटाकर समाज एवं राष्ट्र के कल्याण में आत्मविसर्जन करना ही होगा। यही सच्चा धर्म है, यही अमर मानवत्व है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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