पटना संग्रहालय का पुनर्विलोकन

गिरिन्द्र मोहन ठाकुर
प्राचीन भारतीय स्थापत्य निर्माण के केंद्र में विचारधारा निहित रही है जिसको लक्ष्य कर निर्माण कार्य पूरा किया जाता है। प्राचीन स्थापत्य निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थल मंदिर या देवालय रहा है। मंदिर निर्माण के बाहरी आवरण में विभिन्न देव मूर्तियाँ, काम मूर्तियाँ एवं अन्य अलंकरण होतेे थे। मंदिर का आंतरिक भाग को अपेक्षाकृत सादा व शांत बनाने का प्रयास किया जाता था जिसमें ईष्ट देव की मूर्ति स्थापित होती थी। इस पूरे स्थापत्य निर्माण में चिंतनधारा काम करती है कि ससांर विभिन्न प्रकार के माया से ग्रस्त है किंतु हरि शरण में जाने से ही मन को शांति प्राप्त होती है और आकाशरूपी शुन्य में विलीन होना ही चिरंतन सत्य है।
पटना म्यूजियम का निर्माण औपनिवेशिक कालीन है। जहाँ भारत पर अंग्रेजों का शासन था वहीं औपनिवेशिक विचारधारा को थोपने का प्रयास जारी था। इन सबके बावजूद पटना म्यूजियम के निर्माण में भारतीयता के अंश विद्यमान हैं। पटना म्यूजियम का निर्माण सन् 1925 में प्रारम्भ हुआ था। इसे इंडो-सारसेनिक शैली में बनाया गया था। दूसरे शब्दों में समझा जाए, इसे मध्यकालीन भारत के दो प्रमुख निर्माण शैली के मिश्रण से बनाया गया था। मध्यकालीन उत्तर भारत के दो प्रमुख निर्माण शैली हंै- राजपूत शैली और मुगल शैली। राजपूत शैली के निर्माण में झरोखों एवं बड़े-बड़े खिड़कियों का निर्माण किया जाता था। बड़े-बड़े हाॅलनुमा महलों में पर्याप्त प्रकाश एवं हवा की व्यवस्था के दृष्टिकोण से इस शैली को प्रश्रय मिला। राजपूत पेंटिंग में झरोखों से नायिका को झाँकते हुए दिखाया गया है। राजपूत राजा योद्धा होते थे और ज्यादातर समय युद्ध गतिविधियों में बिताते थे। राजपूत रानियों के लिए अपने योद्धा पति के युद्ध से लौटने के इंतजार के प्रतिबिंब स्वरूप इन झरोखों का निर्माण किया जाता था। मुगल स्थापत्य की विशेषता है कि इनमें कई प्रकार के गुम्बद बनाए जाते थे। भवन के हर एक कोने पर एक बड़े गुम्बद के चारों ओर छोटे-छोटे गुम्बद बनाए जाते थे और दो बड़े गुम्बदों के बीच वाले भाग में कुछ-कुछ दूरी पर छोटे-छोटे गुम्बद बनाए जाते थे। म्यूजियम का पुराना भवन राजपूत शैली एवं मुगल शैली के सामंजस्य से निर्मित हुआ है जो दर्शनीय है। संग्रहालय का निर्माण ब्रिटिश सत्ता की देख-रेख में हुई है, परंतु संग्रहालय भारतीय शैली का प्रतिनिधित्व करती है।
पटना म्यूजियम का नवीनीकरण भारतीय स्थापत्य एवं कला की चिंतन विचारधारा को कंेद्र में रखकर की गई है। नवीणीकरण के साथ-साथ इसके विस्तारीकरण का कार्य भी किया गया है। पुराकलाओं के अपार संग्रह, नई तकनीक का उपयोग एवं अतंर्राष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखकर नवीनीकरण का निर्णय लिया गया। विस्तारीकरण के क्रम में पहला प्रस्ताव यह रखा गया कि नए भवन को एक मंजिला बनाया जाए ताकि पुराने भवन का आकर्षण बरकरार रहे। दूसरा प्रस्ताव था कि पुराने भवन का अनुसरण कर इंडो-सारसेनिक शैली में ही बनाया जाए।
नए निर्माण में टिकट घर को भी व्यवस्थित किया गया है। टिकट लेकर निकलते ही संग्रहालय भवन का आकर्षक स्वरूप दर्शकों का स्वागत करती है। यह सभी उम्र के लोगों का मन लुभावन है। दर्शक कैमरा में कैद करने एवं सेल्फी लेने से स्वयं को रोक नहीं पाते हैं। आगे बढ़ने के क्रम में शानदार टाईल्स तथा बगीचे की क्यारियाँ जीवंत अनुभव कराती हैं। बगीचे के सजावट में विशेषतः पेड़-पौधे कमल की पंखुडीनुमा खिलते दिखाई पड़ते हैं।
संग्रहालय में प्रवेश करते हीे एक भव्य हाॅल है जिसे ’प्री फंक्शन एरिया’ नाम दिया गया है। इससे जूड़ा वी॰ आई॰ पी॰ लौंज, कैफेटेरिया, इंर्फोमेशन डेस्क, क्लाक रूम एवं अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई है। साथ ही साथ इस भव्य हाॅल से जूड़ा सभागार कक्ष तथा एक अस्थाई दीर्घा का निर्माण किया गया है।
संग्रहालय के नवीनीकरण के उपरांत अभी जो भाग दर्शकों के लिए खोला गया है, उसमें तीन गैलरी सम्मिलित हैं- गंगा गैलरी, पाटलि गैलरी एवं मूर्ति वाटिका।
भारत में गंगा की धारा जनमानस की जीवनधारा के रूप में प्रवाहित रही है। बिहार की उर्वरा धरती को गंगा व उसकी सहायक नदियों ने सींचा है। बिहार की संस्कृति में गंगा स्नान हर गतिविधि में समाई रही है। चूँकि गंगा का स्पर्श समाज को प्राप्त हुआ है इसलिए उनके अन्य रूपों की ओर उनका ख्याल नहीं आया। अन्य पक्ष से रू-ब-रू कराने हेतु गंगा की रिप्लिका मूर्ति, गंगा की पेंटिंग, गजेन्द्र मोक्ष कथा तथा गंगा की वजह से उपलब्ध जीव-जन्तु का प्रदर्शन किया गया है। गंगा के आसपास के समाज की जीवन शैली, उत्सव-त्योहार तथा तथा नृत्य-संगीत आदि को मोहक स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है जो हर वर्ग के दर्शक बच्चे, नव-युवक तथा बुजुर्ग आदि को लुभाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण खोज यथा, 53 फीट लम्बे वृक्ष जीवाश्म, चिरांद की खुदाई से प्राप्त पुरावशेष तथा पांड़ से प्राप्त पुरावशेषों को वैज्ञानिक तरीके से प्रदर्शित किया गया है। गंगा का डाल्फिन, गंगा तट के जंगलों की शोभा नील गाय का प्रदर्शन तथा औपनिवेशिक कालीन नील की खेती आदि अति सुंदर है। बिहार की संस्कृति की उपज मिथिला पेंटिंग तथा पटना कलम के दृश्य हृदयस्पर्शी हैं। लोक-पर्व, लोक नृत्य तथा लोक संगीत के दृश्य जैसे सोहर, विदेशिया, झिझिया, सामा-चकेवा तथा जट-जटिन का चटक रंग व प्रदर्शन देखते ही बनती है। मिथिला का पारंपरिक घर एवं दिवालों पर मधुबनी पेंटिंग करती मैथिलानि अद्भुत छटा विखेरती है। गंगा गैलरी उल्लासित व रोमांचक छवि प्रदर्शित करता है।
पाटलि गैलरी बिहार की राजधानी पटना को केंद्र में रखकर गढ़ा गया है। पटना का वर्तमान तथा उसका गौरवशाली अतीत को समाहित किया गया है। भारतीय ऐतिहासिक काल का समृद्धशाली साम्राज्य मगध की राजधानी पाटलिपुत्र थी। बिहार के इतिहास के टाइमलाईन को ईंट के आकार व बनावट के आधार पर स्पष्ट किया गया है। टच-स्क्रीन डिस्प्ले के माध्यम से वर्तमान बिहार के मगध साम्राज्य की महत्त्वपूर्ण घटना की तिथिनुसार जानकारी दी गई है जिसने भारतीय इतिहास को प्रभावित किया है। मगध की राजधानी पहले राजगीर थी, बाद में पाटलिपुत्र में स्थापित हुई, इन दोनों राजधानियों का प्रदर्शन इस गैलरी में किया गया है। इस दीर्घा के अन्तर्गत विद्वान ऋषि-मुनियों का लेखक स्वरूप तथा प्रथम बौद्ध संगीति का प्रदर्शन किया गया है। पतजंलि की पुस्तक अष्टध्यायी का पृष्ठ उलटता जीवंत प्रदर्शन तथा चाणक्य का ए॰ आई॰ जेनरेटेड प्रश्नोत्तरी प्रदर्शन अद्वितीय है। राजगीर का ’पजल्ड तकनीक’ से निर्मित साइक्लोपियन दिवाल तथा पाटलि पेड़ का दर्शन दर्शक को रोचक लगता है। राजगीर की पंच पहाड़ी का प्रदर्शन तथा वर्तमान पटना के महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल के प्रदर्शन में लेजर लाईटिंग का बखूबी उपयोग किया गया है। काष्ठ निर्मित मौर्यकालीन राजभवन देव भवन की तरह लगता है तथा उसमें आकाशीय नीला प्रकाश स्वार्गिक अनुभूति कराता है। स्पष्टतः पाटलि गैलरी की छवि मंत्रमुग्ध करनेवाली है। ं
पाटलि गैलरी से निकलने पर आगे छठ पूजा का दृश्य बना हुआ है तथा टच एण्ड लर्न डिस्प्ले स्क्रीन के माध्यम से बिहार के खाद्य मानचित्र की जानकारी दी गई है।
प्राचीन पुरावशेषों पर काम करने वाले विद्वानों की विशेषता है कि कलावशेष जितनी पुरानी होती है, उनकी रुचि उनमें उतनी ज्यादा होती है। पुराने अवशेषों की टूटने-फूटने की संभावना ज्यादा होती है। पुरातत्त्ववेता को प्राप्त अवशेषों में अधिकतर संख्या टूटे-फूटे अवशेषों की होती है। टूटे मूर्तियों से जो जुड़ाव विशेषज्ञ स्वयं महसुस करते हैं, वही जुड़ाव दर्शकों में प्रविष्ट कराने हेतु मूर्ति वाटिका का निर्माण किया गया है। प्रतिमा के टूटे भाग को दर्शक अपने कल्पना पटल पर जोड़कर पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। साथ ही साथ प्राचीन कलावशेषों के प्रति जागरूकता का संदेश देता है कि टूटे होने पर ये इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इन्हें संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। मूर्ति वाटिका को दो भागों में बाँटा गया है- ब्राह्मण मूर्तियाँ एवं बौद्ध मूर्तियाँ। भारतीय मूर्तिकला में प्रतिमा विज्ञान एवं दर्शन का समावेश देखने को मिलता है जिसे दर्शक अनुभव करते हैं। सामान्य प्रदर्शनी का बेहतरीन प्रभावोत्पादकता उक्त वाटिका में देखने को मिलता है।
संग्रहालय के नवीनीकरण में समर्पित टीम बधाई के पात्र हैं। इसमें निदेशकत्व भूमिका डाॅ॰ सुनील कुमार झा की रही है। डाॅ॰ झा पुरातत्त्व विशेषज्ञ, समर्पित एवं ऊर्यावान व्यक्तित्त्व हैं। वे ’’टेबुल वर्क’’ की जगह ’’ग्राउण्ड वर्क’’ में यकीन रखने वालों में से है जो संग्रहालय निर्माण की बारीक काम से स्पष्ट होता है। उनके क्युरेटोरियल टीम में डाॅ॰ रविशंकर गुप्ता, डाॅ॰ शंकर जयकिशन तथा डाॅ॰ वीशि उपाध्याय रहे हैं। उक्त अधिकारियों का सकारात्मक पक्ष 10 सालों से लगातार म्यूजियम बनाने तथा कलावशेषों के प्रदर्शन करने का है। 2015 ई॰ से ही बिहार संग्रहालय के निर्माण, विभिन्न स्थलों पर प्रदर्शनी का अयोजन तथा पटना संग्रहालय निर्माण आदि में इनकी निरंतर संलिप्तता रही है। इनका अनुभव तथा मेहनत संग्रहालय के दीर्घाओं में स्पष्ट परिलक्षित होता है।


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