वर्तमान और अतीत
जय प्रकाश कुवंरमैं रोज रोज कुछ नया नहीं,
जो दिखता है, सो लिखता हूँ।
मैं अतीत को याद करते हुए,
वर्तमान से सब कुछ सिखता हूँ।।
इतिहास के पन्ने बहुत पुराने हैं।
अब जो सामने आ रहा, नये जमाने हैं।।
इतिहास में क्या लिखा है,
किसने लिखा है,
हम तर्क वितर्क कर सही गलत मान रहे हैं।
पर वर्तमान में आंखों के सामने,
जो घटित हो रहा है, उसे देख और जान रहे हैं।।
इतिहास अब जितना भी खंगालोगे,
उसमें कुछ नया नहीं पाओगे।
जब जीना है वर्तमान में तो,
अतीत में झांक सिर्फ पछताओगे।।
कुछ पाना तो अब संभव है नहीं,
बेकार तर्क वितर्क कर,
अपने मन पर बोझ बढ़ा रहे हो।
बहुत सारे साख्य खोजते खोजते,
साख्यों के मकड़जाल में समाज को,
और भी उलझाते जा रहे हो।।
नया युग आ गया है, युग के साथ चलो,
बरना अनेक पीछे रह जाओगे।
अगर भीड़ में कहीं गिर गये तो,
लोगों के पैरों तले कुचल जाओगे।।
नीतियां अब किसी को अच्छी लगती नहीं,
क्योंकि सबकी नीयत बदल गयी है।
घर परिवार, स्कूल कालेज, कोर्ट कचहरी,
सभी जगह नयापन की,
एक झिल्लीदार आवरण चढ़ गयी है।।
तुम पुराने उसुलों की बात करते करते,
स्वयं ही थक जाओगे।
कोई तुम्हारा सुनेगा नहीं और,
तुम एक दिन स्वर्ग सिधार जाओगे।।
अब बेकार की टोका टोकी बंद करो,
सबकी सुनो, सब कुछ सहो।
जो जनहित की बातें हों,
उसे मौन होकर लिखते रहो।।
जब दरिया में स्वच्छ जल की जगह,
गंदा कीचड़ ही बह रहा है,
तुम तब अकेले क्या कर पाओगे।
अकेले स्वच्छ तो करने से रहे,
अपना हाथ गंदा कर जाओगे।।
बेहतर है एक किनारे पर बैठ,
अपने उसुलों को समेटे रहो।।
कुछ बातों को नीयति पर छोड़ दो,
समय चक्र का इंतजार करो।।
यह मेरी निराशा नहीं,
यह वर्तमान की मांग है।
तुम अपने दामन को कैसे बचाओगे,
जब समाज में फैली घोर अनीति,
नफरत और दहसत की आग है।।
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