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एक बार और जाल फेंक रे मछेरे! जाने किस मछली में

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे! जाने किस मछली में 

  • भारत के लोकप्रिय गीतकार पंडित बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने गीतों से मुग्ध किया पटना को
पटना, २१ सितम्बर। "एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!", “ चाँद उगे चले आना पिया कोई जाने ना / दूँगी तुझे नजराना पिया, कोई जाने ना", ----- “जिसे चाहा नहीं तुमने कभी वह चैन पाया क्या? ये साँसे तेज चलती है किसी का दिल चुराया क्या? ज़रूरत क्या तुम्हारे रूप को ऋंगार करने की / किसी हिरणी ने अपनी आँख में काजल लगाया क्या?”

इन पंक्तियों के साथ नगर के कवियों से मुख़ातिब थे, देश के ख्याति नाम गीत कार पं बुद्धिनाथ मिश्र। रविवार की संध्या, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में एकल काव्य-पाठ ऋंखला के अंतर्गत आयोजित कार्यक्रम 'मैं और मेरी कविता' के इस अंक के कवि के रूप में पं मिश्र ने अपने मधुर स्वर में पढ़े गए हृदय-स्पर्शी गीतों से सुधी श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया। आरंभ में सम्मेलन-अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने अंग-वस्त्रम से कवि का अभिनन्दन किया सम्मेलन की प्रचारमंत्री विभा रानी श्रीवास्तव ने पं मिश्र का परिचय पढ़ा ।

अपने काव्य-पाठ का आरंभ पं मिश्र ने मुक्तक की इन पंक्तियों से किया कि "चाहूँ किसी घूँघट वाली के हाथों का दर्पण बन जाऊँ/ या काजल वाली आँखों का तिरता हुआ सपन बन जाऊँ/ मैं तो लोहा जनम-जनम का एक अरज है तुम से / तू पारस पत्थर हो मुझको छू लो तो कंचन बन जाऊँ" । प्रेम और ऋंगार की इन पंक्तियों को जैसे ही उन्होंने स्वर दिया, सदन तालियों से गूँज उठी - “जिसे चाहा नहीं तुमने कभी वह चैन पाया क्या? ये साँसे तेज चलती है किसी का दिल चुराया क्या? ज़रूरत क्या तुम्हारे रूप को ऋंगार करने की / किसी हिरणी ने अपनी आँख में काजल लगाया क्या?”

ऋंगार की इन पंक्तियों को भी श्रोताओं का भरपूर प्यार मिला कि " दर्द की मीठी थाप पर मरता/ आँसुओं के मिलाप पर मरता/ ऐसा लगता है मैं मरूँगा नहीं/ मरना होता तो आप पर मरता"। प्रेम की उदात्त चेतना को अभिव्यक्त करने वाली इन पंक्तियों से उन्होंने श्रोताओं का दिल जीत लिया कि "मैंने जीवन भर बैराग जिया है सच है/ लेकिन तुम से प्यार किया है, यह भी सच है। मैंने सपनों को वनवास दिया है सच है/ लेकिन तुम से प्यार किया है, यह भी सच है।"

ग्राम्य जीवन और बूढ़ी माँ का संदर्भ लेकर कवि ने अपने काव्य-सामर्थ्य का परिचय इन पंक्तियों में दिया कि "अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ मुझसे लिखवाती है/ जो भी मैं लिखता हूँ, वो कविता हो जाती है"। "प्यास हरे कोई घन बरसे/ तुम बरसो या सावन बरसे।"
लोकधुन को शब्द देने वाली मनुहार की इन पंक्तियों पर भी श्रोता झूमते रहे - “ चाँद उगे चले आना पिया कोई जाने ना / दूँगी तुझे नजराना पिया, कोई जाने ना/ जाग रही चौखट की साँकल/ जाग रही पनघाट पर छागल/ सो जाएं जब घाट नदी के/ तुम चुपके से आना पिया कोई जाने ना।"

जीवन को परिभाषित कारने वाली इन पंक्तियों को भी श्रोताओं का भरपूर प्यार मिला कि "ज़िंदगी अभिशाप भी वरदान भी/ ज़िंदगी दुःख में पला अरमान भी"। विशेष आग्रह पर पं मिश्र ने अपना सर्वाधिक चर्चित गीत "एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो" का भी पाठ किया। उन्होंने अपनी डेढ़ दर्जन प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया, जिनका तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कवि-श्रोताओं द्वारा स्वागत किया गया।

एकल काव्य-पाठ ऋंखला की इस तीसरी कड़ी में विशिष्ट श्रोता के रूप में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्राध्यापक डा कमलानन्द झा, वरिष्ठ कवि कुमार मनीष अरविन्द, डा रत्नेश्वर सिंह, वरिष्ठ शायर आरपी घायल, आराधना प्रसाद, संस्कृति मिश्र, कुमार अनुपम, प्रियंवदा मिश्र, डा प्रतिभा रानी, विवेकानन्द झा, उमेश मिश्र, ईं अशोक कुमार, शायर डा ए के आलवी, मधु रानी लाल, चित्तरंजन भारती, शुभ चंद्र सिन्हा, डा शालिनी पाण्डेय, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, ज्योति मिश्र, डा आर प्रवेश, शायर अश्फ़ाक आदिल, पंकज प्रियम, इन्दु भूषण सहाय, रौली कुमारी, कुन्दन लोहानी, बिंदेश्वर प्रसाद गुप्त आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे। मंच का संचालन डा अर्चना त्रिपाठी ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।

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