किनारे पर खड़ा होकर
ज्योतींद्र मिश्र
किनारे पर खड़ा होकर तू कैसे जान पाओगे
बिना डुबकी लगाए क्या कभी पहचान पाओगे
बोलती हैं चुप्पियां भी , गर सुन सको दिल से
वरना हर जगह दीवार में भी , कान पाओगे
बदलता है कभी खंजर,कातिल भी बदल जाता
मगर काजी के चेहरे पर सदा मुस्कान पाओगे
सियासत में लहज़ा ठीक रखना ही बेहतर है
वरना शामियाना को सदा सुनसान पाओगे
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