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"फ़्रेम के पार"

"फ़्रेम के पार"

पंकज शर्मा
स्वर्ण-वृष्टि की परिधि तले
वह एक गुप्त नक्षत्र-सी चलती है,
मौन में लिपटे वज्र-संकल्प के साथ—
जहाँ हर पगचिह्न
एक अज्ञात शास्त्र की लिपि बन जाता है।


यह फ्रेम—
मानव-कल्पित मर्यादाओं का श्रृंगार—
धीरे-धीरे पिघलता है,
मानो समय स्वयं स्वीकार कर रहा हो
कि सीमाएँ स्थायी नहीं,
सिर्फ़ भ्रमजाल हैं।


उसका स्वर्ण-छत्र—
आकाश और पृथ्वी के बीच
एक दैदीप्यमान मध्यस्थ-सा,
जो न केवल वर्षा और तूफ़ान से बचाता है,
बल्कि समूची नियति पर
एक आवरण डाल देता है।


वसन की श्याम तरंगें—
मानो यमुनाजल की गहराई,
जिसमें रहस्य और सौंदर्य
एक साथ विचरते हों।
अंधकार उसके लिए
बंधन नहीं,
बल्कि चिरंतन नृत्य का
सहगान है।


स्वर्ण-पदचाप—
जैसे अग्नि-शिखा पर रखे गए
चिनगारी-दल,
जो हर दिशा में उद्घोष करते हैं
कि कला और विद्रोह
एक ही मुद्रा के दो रूप हैं।


टपकता हुआ स्वर्ण,
गलता हुआ चौखट—
मानो यह साक्षात्कार है
उस सत्य का
जिसे कोई कैनवास बाँध नहीं सकता।
वह स्वंय एक छंद है—
अदृश्य, अपरिमेय, असीम।


उसका आच्छन्न मुख—
एक प्रतीक है उस मौन-शक्ति का,
जो नाम और रूप के परे जाकर
केवल अस्तित्व की गूंज में
बोलती है।
यही मौन है
जो समूची धरा का
गुप्त मंत्र बन जाता है।


और फिर—
जब वह सीमाओं को भेदकर
बाहर निकलती है,
तो यह दृश्य केवल एक स्त्री का नहीं,
बल्कि सम्पूर्ण मानवता का
मुक्ति-संकेत है।
स्वर्ण और श्याम के बीच
उसकी यात्रा
अनंत आकाश में लिख देती है—
स्वाधीनता का महाकाव्य।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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