भाषा: हमारी सांस्कृतिक पहचान, शिक्षा और सतत विकास की नींव
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भाषा सिर्फ़ संवाद का एक साधन नहीं है; यह हमारी पहचान, संस्कृति और सामूहिक ज्ञान की वाहक है। यह हमारे विचारों, परंपराओं, इतिहास और भावनाओं को पीढ़ियों तक पहुँचाती है। हालाँकि, आज की दुनिया में, जहाँ वैश्वीकरण और सामाजिक परिवर्तन तेज़ी से हो रहे हैं, कई भाषाएँ लुप्त होने की कगार पर हैं। हर दो हफ्ते में एक भाषा का लुप्त होना, एक पूरी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत का नुकसान है। इसी गंभीर स्थिति को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस जैसे वैश्विक प्रयासों का महत्व और भी बढ़ जाता है, जो भाषाई विविधता और बहुभाषावाद को बढ़ावा देने का एक शक्तिशाली माध्यम है। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का विचार बांग्लादेश की एक ऐतिहासिक पहल थी। 1952 में, बांग्ला को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) के छात्रों ने एक आंदोलन चलाया। इस आंदोलन में कई छात्र शहीद हुए। उन्हीं शहीदों की याद में और भाषाई अधिकारों के सम्मान में, नवंबर 1999 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के महाधिवेशन ने 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में घोषित किया। बाद में, 2002 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी इस घोषणा का स्वागत किया। यह दिवस दुनिया भर में उन सभी लोगों को याद दिलाता है जो अपनी भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा का उपयोग अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह सीखने के परिणामों को बेहतर बनाने के लिए एक मूलभूत कदम है। जब छात्र अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, तो वे बेहतर समझ, जुड़ाव और आलोचनात्मक सोच कौशल का प्रदर्शन करते हैं। जटिल अवधारणाओं को समझने में उन्हें कम कठिनाई होती है, जिससे उनकी शिक्षा की नींव मजबूत होती है। इसके विपरीत, जिन छात्रों को ऐसी भाषा में शिक्षा दी जाती है, जिसे वे पूरी तरह से नहीं समझते, वे अक्सर सीखने में पीछे रह जाते हैं और शिक्षा से उनका जुड़ाव कम हो जाता है।बहुभाषी शिक्षा, विशेष रूप से अल्पसंख्यक और स्वदेशी भाषाओं के लिए, समावेशी समाजों के निर्माण में सहायक होती है। भारत जैसे भाषाई रूप से विविध देश में, जहाँ 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 121 प्रमुख भाषाएँ और 270 मातृभाषाएँ बोली जाती हैं, यह सिद्धांत और भी प्रासंगिक हो जाता है। बिहार की मगही, भोजपुरी, बज्जिका और उत्तर प्रदेश की अवधी, ब्रजभाषा जैसी क्षेत्रीय भाषाएँ हमारी सांस्कृतिक विविधता का अभिन्न अंग हैं। इन भाषाओं को शिक्षा प्रणाली में शामिल करने से छात्रों को अपनी जड़ों से जुड़े रहने और अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में मदद मिलती है। भाषाएँ केवल सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वे सतत विकास के लिए भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। वे सामाजिक एकीकरण, संचार और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जब कोई भाषा लुप्त होती है, तो उसके साथ ज्ञान, परंपराएँ, स्मृतियाँ और अभिव्यक्ति के अनूठे तरीके भी लुप्त हो जाते हैं। यूनेस्को का अनुमान है कि दुनिया की लगभग 7,000 भाषाओं में से 44% लुप्त होने की कगार पर हैं। यह एक अलार्मिंग आंकड़ा है जो भाषाई संरक्षण के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग करता है। बहुभाषी समाज अपनी भाषाओं के माध्यम से ही जीवित रहते हैं। वे पारंपरिक ज्ञान और संस्कृतियों को स्थायी रूप से प्रसारित और संरक्षित करते हैं। आज दुनिया में इस बात के प्रति जागरूकता बढ़ रही है कि भाषाएँ सांस्कृतिक विविधता, अंतर-सांस्कृतिक संवाद, और समावेशी ज्ञान समाजों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे सहयोग को मजबूत करने, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करने और सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करती हैं।भाषा संरक्षण एक सामूहिक जिम्मेदारी है। यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि भविष्य की पीढ़ियाँ भी हमारी समृद्ध भाषाई विरासत से जुड़ सकें। इस दिशा में, वैश्विक और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर कई महत्वपूर्ण प्रयास किए जा रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (21 फरवरी): यह दिवस भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के महत्व के बारे में जागरूकता फैलाता है। लुप्तप्राय भाषाओं का एटलस: यूनेस्को द्वारा प्रकाशित यह एटलस, दुनिया भर की लुप्तप्राय भाषाओं को सूचीबद्ध करता है।अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी भाषा दशक (2022-2032): संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दशक, स्वदेशी भाषाओं के संरक्षण, पुनरुद्धार और संवर्धन के लिए एक मंच प्रदान करता है। डिजिटल दुनिया में भाषाओं को बढ़ावा देना: यूनेस्को डिजिटल दुनिया में भाषाओं के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए भी काम करता है ताकि भाषाई विविधता ऑनलाइन भी बनी रहे।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची: इसमें 22 भाषाओं को शामिल किया गया है, जिन्हें आधिकारिक मान्यता प्राप्त है, जिससे उनके विकास और संरक्षण को सुनिश्चित किया जाता है।नई शिक्षा नीति 2020: यह नीति बहुभाषावाद को बढ़ावा देने पर जोर देती है और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के उपयोग को प्रोत्साहित करती है। भारतीय भाषा संस्थान मैसूरु में स्थित यह संस्थान भारतीय भाषाओं के अनुसंधान, दस्तावेजीकरण और विकास के लिए समर्पित है। लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण के लिए योजना: भारत सरकार ने उन भाषाओं के दस्तावेजीकरण और संरक्षण के लिए यह योजना शुरू की है जिनकी बोली जाने वाली संख्या 10,000 से कम है।
सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के अलावा, व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर भी भाषा संरक्षण के प्रयास बहुत महत्वपूर्ण हैं। अपनी मातृभाषा का दैनिक जीवन में सक्रिय रूप से उपयोग करना, बच्चों को अपनी मातृभाषा में पढ़ना और लिखना सिखाना, और डिजिटल स्पेस में भाषा को प्रासंगिक बनाए रखना कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे हम अपनी भाषाई विरासत को जीवंत रख सकते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम और त्यौहार आयोजित करना भी भाषा को बढ़ावा देने का एक प्रभावी तरीका है। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की 25वीं वर्षगांठ भाषाई विविधता के संरक्षण और मातृभाषाओं को बढ़ावा देने के प्रयासों की एक चौथाई सदी का जश्न मनाती है। यह हमें याद दिलाता है कि भाषाएँ केवल शब्दों का संग्रह नहीं हैं, बल्कि वे लोगों को जोड़ने, ज्ञान को संरक्षित करने और एक अधिक समावेशी और टिकाऊ भविष्य के निर्माण के लिए एक शक्तिशाली उपकरण हैं। भाषाई विविधता का सम्मान करना और उसे बढ़ावा देना, हमारी साझा मानवता का सम्मान करना है। हमारी मातृभाषा हमारी पहचान की जड़ है। इसे संरक्षित करना सिर्फ़ एक भाषाई प्रयास नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक और मानवीय जिम्मेदारी है।
भारत में 1652 बोलियाँ और मातृभाषाएँ बोली जाती हैं । भाषा एक जीवंत इकाई है जो हमारी पहचान, संस्कृति और ज्ञान को दर्शाती है। हालांकि, वैश्वीकरण और सामाजिक बदलावों के कारण कई भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। आइए जानते हैं दुनिया, भारत और बिहार में भाषाओं की स्थिति के बारे दुनिया में भाषाओं की संख्या को लेकर विभिन्न अनुमान मौजूद हैं। एक अनुमान के अनुसार, विश्व में 7,000 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से लगभग 44% भाषाएं लुप्तप्राय हैं। इसका मतलब है कि ये भाषाएं भविष्य में विलुप्त हो सकती हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, सदी के अंत तक दुनिया की लगभग 1,500 भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं। इन भाषाओं के लुप्त होने से उनके साथ जुड़ी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत भी खत्म हो जाएगी। भारत अपनी भाषाई विविधता के लिए जाना जाता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 121 प्रमुख भाषाएं और उनसे जुड़ी 270 मातृभाषाएं हैं। कुल मिलाकर, भारत में लगभग 19,500 बोलियां और मातृभाषाएं बोली जाती हैं। विभिन्न स्रोतों के अनुसार, भारत में लगभग 453 जीवित भाषाएं हैं। इनमें से कई भाषाएं लुप्तप्राय हैं। यूनेस्को के अनुसार, भारत में लगभग 197 भाषाएं लुप्तप्राय हैं। गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली 42 भाषाओं को लुप्तप्राय माना जा रहा है।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक मान्यता दी गई है, जिनमें असमिया, बांग्ला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। बिहार में भी भाषाओं और बोलियों की एक समृद्ध विविधता है। हालांकि राज्य की आधिकारिक भाषाएं हिंदी और उर्दू हैं, लेकिन यहां कई क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। बिहार की प्रमुख भाषाओं और बोलियों में मगही, भोजपुरी, बज्जिका, अंगिका, मैथिली और सुरजापुरी , सोनातिरिया शामिल हैं। बिहार के मिथिला क्षेत्र में बोली जाती है और इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल किया गया है।
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