"जीवन का प्रश्न"
कभी ठहरो,शांत जल की तरह स्थिर होकर
अपने भीतर झाँको…
और पूछो—
क्या मैं जी रहा हूँ?
या केवल समय के प्रवाह में
निष्क्रिय बह रहा हूँ?
गीता कहती है—
“योगः कर्मसु कौशलम्”
कर्म ही जीवन का धर्म है,
पर क्या मेरे कर्म
सत्य और आनंद से जुड़े हैं,
या वे केवल
बचने का बहाना हैं
जीवन के यथार्थ से?
जीना केवल सांसों का खेल नहीं,
यह है स्थितप्रज्ञता—
हर क्षण को
अकंपित चित्त से
स्वीकार करने की साधना।
पर मैं?
कहीं मैं उन लोगों में तो नहीं
जो दिन काटते हैं
जैसे ऋतु के अंत का इंतज़ार हों,
पर जीना भूल जाते हों
क्योंकि मन उलझा है
फल की आकांक्षा में?
कृष्ण कहते हैं—
“मा फलेषु कदाचन”
फल में मत अटक,
क्योंकि जो समय गया
वह लौटकर नहीं आएगा।
हर क्षण एक यज्ञ है,
हर श्वास एक अर्पण।
तो उठो,
जीवन को कर्मयोग में बदलो।
कर्म करो,
पर उसमें आनंद का रस भरो।
वरना समय,
यह अदृश्य सारथी,
तुम्हें खींचता रहेगा
और तुम रह जाओगे
पछतावे की वीरान भूमि पर।
तो उठो,
कर्तव्य को योग में बदलो,
आनंद को अपने कर्म में पिरोओ।
यही है जीवन,
यही है मुक्ति।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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