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"व्रत और वर्जना"

"व्रत और वर्जना"

पंकज शर्मा
मैं अपने संबंधों को
मन-मंदिर की स्वर्णवेदी पर
आराध्य प्रतिमाओं-सा प्रतिष्ठित करता हूँ—
उन पर स्नेह का चंदन चढ़ाता हूँ,
विश्वास की आभा से अभिषेक करता हूँ,
और स्मृतियों की निर्मल धूप से
उनकी आरती उतारता हूँ।


किन्तु,
जब समय का दिगंत
अधर्म के श्यामल मेघ से ढँकने लगे,
जब सत्य का प्रखर सूर्य
असत्य की कुटिल ग्रहण-रेखा में
समाने को विवश हो,
जब नीति के दीपक की लौ पर
लोभ, स्वार्थ और वर्चस्व की
अविराम आँधियाँ
अतिक्रमण करने लगें—
तब मैं
विवेक की तीक्ष्ण तलवार
अपने ही हृदय में उतारते हुए भी
रक्त से सिंचित रिश्तों की
रेशमी डोर
निर्द्विधा छिन्न कर देता हूँ।


क्योंकि मुझे ज्ञात है—
संबंध यदि अन्याय के वस्त्र से ढँक जाएँ,
तो वह पूजा नहीं, अपमान है;
यदि ममता की आड़ में
मौन स्वीकृति दी जाए,
तो वह स्नेह नहीं,
धर्म से विश्वासघात है।


मेरे लिए सत्य
किसी एक संबंध की सीमित परिधि में
कैद नहीं है—
वह समस्त संबंधों का
आदि और अंत है।
और यदि सत्य को बचाने के लिए
मुझे अपने ही प्राणों के समान
प्रिय बंधनों को त्यागना पड़े,
तो मैं यह बलिदान
निर्भीकता से करता हूँ,
जैसे कोई साधक
अग्नि में आहुति डालता है
यह जानते हुए कि
अग्नि में ही शुद्धि का रहस्य है।


मेरे लिए रिश्ते
स्वर्ण-मंडित खिड़कियों जैसे हैं,
जो प्रकाश का स्वागत करती हैं—
पर यदि वे
अंधकार को कैद करने लगें,
तो मैं उन्हें
बिना संकोच भंग कर देता हूँ,
ताकि उजालाफिर से भीतर उतर सके।
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