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" अनमोल रत्न "

" अनमोल रत्न "

→ सुरेन्द्र कुमार रंजन

प्राचीन काल की बात है। सत्यपुरी नामक राज्य में राजा वीरसेन का शासन था। राजा वीरसेन की दरियादिली और न्यायप्रियता प्रसिद्ध थी। अपनी प्रजा को वे बहुत चाहते थे। प्रजा अपने राजा की उदारता एवं दयालुता से काफी प्रसन्न थी। राजा-प्रजा दोनों खुशहाल थे।


राजा की दो संतानें थी। एक पुत्र सत्यसेन तथा दूसरी पुत्री सत्यवती । सत्यसेन अपने पिता की तरह ही पराक्रमी, साहसी, दयालु और न्यायप्रिय था। जब राजा वीरसेन पर वृद्धावस्था हावी होने लगी तो उन्होंने राज्य का भार अपने पुत्र सत्यसेन को सौंप दिया। उन्होंने पुत्र से कहा कि अपनी प्रजा को सदा खुशहाल रखना। सत्यसेन पूरी कुशलता से राज्य का विस्तार करने लगा।


इसी राज्य में महेन्द्र नाम का एक दरिद्र ब्राह्नण अपनी पत्नी के साथ रहता था। दरिद्रता के कारण उन्हें कभी भोजन नसीब होता था तो कभी दो-चार दिनों तक पानी के सहारे ही गुजारा करना पड़ता था। अनपढ़ होने के कारण महेन्द्र को कोई रोजगार भी नहीं मिलता था।


एक दिन उसकी पत्नी उससे बोली कि कब तक हम जिन्दगी को इसी तरह घसीटते रहेगें। आप
किसी दूसरे गाँव जाकर कोई रोजगार क्यों नहीं ढूँढ़ते । पत्नी की बात सुनकर पंडितजी घर से निकल पड़े।


रास्ते में पंडितजी यह सोंचते जा रहे थे कि आखिर किस तरह का काम तलाश करूँ। जब उन्हें कुछ नहीं सूझा तो वे वापस घर लौट पड़े। वे सोंचने लगे कि क्यों ना पंडिताइन से ही पूछ लिया जाय। ज्यों ही पंडितजी घर पहुँचे त्यों ही पंडिताइन उन पर बिफर पड़ी। किसी तरह समझा बुझाकर पंडितजी ने पंडिताइन को शांत किया। वे बोले कि तुम तो जानती हो कि मैं अनपढ़ हूँ तो भला कौन मुझे काम देगा। तुम ही कुछ उपाय बताओं जिससे मैं धन कमा सकूं। बात पंडिताइन की समझ में आ गयी। कुछ क्षण सोंचने के बाद बोली, मैं एक पत्र दे रही हूँ जिसमें पाँच श्लोक लिखे हुए हैं। आप राजा को पत्र देते समय कहिएगा कि इसमें पाँच श्लोक लिखे हुए हैं जिनकी कीमत पाँच लाख रुपए हैं। यदि आपको यह पसंद है तो मुझे पाँच लाख रूपया दे दीजिए।


पंडिताइन से पत्र लेकर पंडित जी राजदरबार में उपस्थित हुए। उन्होंने राजा से कहा कि - महाराज मेरी पत्नी ने आपके लिए एक पत्र भेजी है। इस पत्र में पाँच बेशकीमती श्लोक अंकित हैं। इसकी कीमत पाँच लाख रूपये हैं। यदि यह आपको पसंद है तो मुझे पाँच लाख रूपये दे दीजिए और यह पत्र ले लीजिए। पंडितजी की बात सुनकर राजा की उत्सुकता बढ़ गयी। उन्होंने पाँच लाख रूपये पंडितजी को दिलवा दिया और पत्र उनसे ले लिया।


एक ब्राह्मण को एक पत्र के लिए पाँचलाख रूपये देने की बात जब राजा वीरसेन तक पहुँची तो वे अपने पुत्र की मूर्खता पर खीज उठे। उन्होंने उसी वक्त राजकुमार को देश निकाला का आदेश दे दिया। पिता की आज्ञा सुनकर राजकुमार विचलित नहीं हुआ। राजकुमार पंडितजी के पत्र को खोला और पहले श्लोक को पढ़ा। पहला श्लोक था -"बने का बाप।" राजकुमार इस श्लोक के संबंध में चिन्तन करने लगा तो सहसा ही इसका जवाब उसे मिल गया। वह सोचने लगा कि पंडितजी का पहला श्लोक सत्य साबित हुआ क्योंकि जब तक मैं धन अर्जन करता रहा तो पिता के लिए योग्य रहा लेकिन उसी कमाये धन में से थोड़ा खर्च कर दिया तो अयोग्य हो गया।


देश निष्कासन से पहले वे माँ से मिलने पहुंचे। माँ उनसे लिपटकर अपनी ममता का इजहार करने लगी। उन्होंने माँ को आश्वासन दिया कि वे शीघ्र ही लौट आएंगे। जाते समय माँ ने कुछ धन उन्हें दिया और बोली कि बेटा इसे रख लो, तुम्हारे बुरे वक्त में काम आएगा। राजा ने पंडितजी के दूसरे श्लोक को पढ़ा। दूसरा श्लोक था- " ममतामयी मों।" पंडितजी के दूसरे श्लोक की सत्यता भी साबित हो गयी।


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राजा सत्यसेन अपने राज्य को छोड़‌कर निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने पंडितजी के तीसरे श्लोक को पढ़ा। तीसरा श्लोक था -" सम्पत्ति की बहन ।" रास्ते में ही इनकी बहन का ससुराल पड़ता था। बहन के प्रेम से बाध्य होकर वे बहन से मिलने उसके राजमहल के पास पहुँचे। उन्होंने द्वारपालसे कहा कि , तुम जाकर अपनी रानी से कहो कि आपके भाई आपसे मिलने आये हैं। द्वारपाल ने यह सूचना रानी को दे दी। रानी द्वारपाल से पूछी कि भइया के साथ कितने हाथी घोड़े हैं। यह सुनकर द्वारपाल ने कहा कि वे तो अकेले आए हैं। यह सुनकर रानी बोली कि भइया के यहाँ से कोई नौकर आया होगा। रानी ने नास्ते की एक पोटली द्वारपाल को देते हुए बोली कि यह उसे दे देना और कहना कि सब ठीक है।


द्वारपाल ने पोटली लाकर सत्यसेन को दे दि‌या और कहा कि रानी जी ने कहा है कि सब ठीक है। वे सोंच‌ने लगे कि सम्पत्ति रहने पर ही बहन भी पूछती है। धन नहीं रहने पर वह भी ठुकरा देती है। पंडितजी के तीसरे श्लोक की सत्यता भी साबित हो गयी।


बहन द्वारा मिली पोटली को लेकर राजा सत्यसेन आगे चल पड़े। उन्होंने चौथे श्लोक को पढ़ा। चौथा श्लोक था -" विपत्तिकाले मित्र ।" कुछ दूर चलते चलते सत्यसेन को बचपन का मित्र मिल गया। सत्यसेन की यह हालत देख मित्र काफी दुखी हुआ। उसने सत्यसेन से कहा कि मित्र तुम मेरे साथ यहीं रहो। मित्र के विशेष आग्रह पर वह कुछ दिनों तक वहीं रूक गया। उसके मित्र ने काफी सेवा की। चौथे श्लोक की सत्यता भी साबित हो गयी।


कुछ दिन के पश्चात् मित्र से आज्ञा लेकर वे आगे की ओर प्रस्थान कर गए। चलते-चलते वे एक दूसरे राज्य में पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने राजा की एक शर्त सुनी। शर्त के अनुसार जो व्यक्ति राजा की बेटीके साथ शयनकक्ष में रात बिताएगा उससे राजकु‌मारी की शादी कर दी जाएगी और पूरा राज-पाट दे दिया जाएगा। राजा की शर्त सुनकर सत्यसेन ने अपना भाग्य अजमाने का सोंचा। उसने राजा के समक्ष अपनी बात रखी। राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।


सत्यसेन रात्रि में राजकुमारी के साथ शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गया। उसे पंडितजी के पाँचवे श्लोक की याद आई। उसने पाँचवें श्लोक को पढ़ा। पाँचवा श्लोक था -" जागे सो पाये, सोये सो खोये।" उसने सोचा कि क्यों ना आज जागकर ही रात बिताई जाय। ठीक अर्ध रात्रि को उसने देखा कि राजकुमारी के बिछावन से दो काले सर्प निकलकर उसकी ओर बढ़ने लगे। उसने बड़ी फुर्ती से दोनों सर्प को मार दिया। सुबह सत्यसेन राजकुमारी के साथ सकुशल शयनकक्ष से बाहर निकला। राजा ने शर्त के अनुसार राजकुमारी से उसकी शादी कर दी और अपना राज-पाट उसे सौंप दिया। पंडितजी की पाँचवे श्लोक की सत्यता भी साबित हो गयी।
कुछ दिन वहाँ गुजारने के बाद सत्यसेन अपनी पत्नी के साथ माता-पिता से मिलने चल दिया ।रास्ते में उसका वही पुराना मित्र मिला जिसने विपत्ति में उसका साथ दिया था। उसने मित्र को ढेर सारा धन दिया। वहाँ से चलने के बाद वह बहन के पास पहुँचा। भाई के आने की खबर सुन वह दौड़ी-दौड़ी दरवाजे पर पहुँची। भाई ने बहन की उस पोटली को लौटा दिया जो विपत्ति के समय में उसे दी थी। उसके बाद वह अपनी माँ के पास पहुँचा। माँ नेबहू-बेटे को गले से लगा लिया। राजा वीरसेन को जब यह जानकारी मिली कि उनका बेटा लव-लश्कर के साथ लौटा है तो ने बेटा के पास पहुंचे। उन्होंने बेटे को गले से लगा लिया और राज-पाट पुनः उसे सौंप दिया। सत्यसेन ने ब्राह्मण को बुलाकर ढेर सारा धन देकर सम्मानित किया ।
इस लघु कहानी से हमें बहुत बड़ी सीख मिलती है। इस कहानी में जीवन के यथार्थ के दर्शन होते हैं। यह जीवन का कटु सत्य है कि धन रहने पर सभी लोग प्रतिष्ठा देते हैं लेकिन धन के क्षय होने पर अपने भी मुख मोड़ लेते हैं। पंडितजी के छोटे-छोटे श्लोक में जीवन के बड़े-बड़े रहस्य छिपे हुए थे। हमें भी चाहिए कि जीवन के अनुभवों के अनुरूप ही कोई कार्य करें। सत्यसेन की तरह ही निर्भीक होकर सामने आये विपत्ति से निबटना चाहिए। विपत्तिकाल में जो धैर्य को नहीं छोड़ता वह कभी भी असफल नहीं होता। विपत्ति में सदा विवेक का सहारा लेना चाहिए पंडित जी का प्रत्येक श्लोक एक अमूल्य रत्न के समान था।


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