"तिरंगे का अभिषेक"
आज,आकाश-गर्भ में प्रतिष्ठित
त्रिवर्णा की पावन पताका
प्रज्वलित कर रही है
रक्तरंजित स्मृतियों की मशाल।
यह लहर नहीं—
बलिदान-निक्षिप्त रक्तधारा का
मौन, किंतु उग्र प्रवाह है।
यह रंग नहीं—
संघर्ष-दीप्त ज्वाला की
अजर-अमर आभा है।
कभी,
स्वर्ण-लोभ से उद्दीप्त
वणिकों ने
सांध्य-धूमिल षड्यंत्रों की चादर तानी—
भ्रातृभाव को विभाजित करने की
घृणित कूटनीति रची।
हमारी सभ्यता की वल्कल-गुंफित गरिमा
विष-लेपित ग्रंथियों में जकड़ दी गई।
परंतु,
धरती की उर्वरा में
वीरत्व के अंकुर पनपे—
किसी ने प्राण को
अग्नि-कुण्ड में अर्पित किया,
किसी ने अस्थियों को
वज्र की दृढ़ता में परिणत कर दिया।
और तब—
हमने पुनः पा लिया
स्वत्व का स्वर्णाभ मुकुट,
स्वाभिमान का अजेय शंखनाद,
स्वाधीनता का अनुपम प्रसाद।
आज,
यह तिरंगा
केवल ध्वज नहीं—
अनगिन अनाम शिलाओं पर
लिखा गया
अक्षय-शौर्य का
अलंकार है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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