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तुम कब जियोगे मेरे लिए

तुम कब जियोगे मेरे लिए

जी रहा हूॅं बस मैं तो तेरे लिए,
पर तुम कब जियोगे मेरे लिए ।
ढूॅंढ रहे हो तुम मेरे लिए अंधेरा ,
जला रखा मैं चिराग तेरे लिए ।।
क्यूॅं देते हो मेरे लिए अंधियारा ,
दिन में भी अंधेरा है गलियारा ।
मुझे समझते महज हो तारे ,
फिर भी चाॅंद सा बना प्यारा ।।
सजाकर रखा हूॅं जो तुम दिए ,
सदा जलाए रखूंगा मैं तो दीए ।
मैं जलता रहूॅंगा सदा तेरे लिए ,
तुम जलोगे स्वयं जो हो किए ।।
तुझसे मुझे सदा आस रहेगा ,
तेरा अंधेरा मेरा प्रकाश रहेगा ।
किया है जैसा मैंने तेरे संग में ,
इसका तुझे अहसास रहेगा ।।
तुम नशेड़ी जैसे दारू हो पिए ,
फिर भी हम तेरे हेतु ही जिए ।
तुम फाड़ते रहे सडे़ वस्त्र जैसे ,
फटे वस्त्र सा उसे हम सीए ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।.
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