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भारत के लिए पुरानी लेकिन अनसुलझी चुनौती है “रोहिंग्या”

भारत के लिए पुरानी लेकिन अनसुलझी चुनौती है “रोहिंग्या”

दिव्य रश्मि के उपसम्पादक श्री जितेन्द्र कुमार सिन्हा की खबर |

भारत एक ऐसा देश है जिसने सदियों से बाहरी लोगों को शरण दी, उन्हें अपनाया और उन्हें अपने समाज का हिस्सा बनाया। चाहे वह पारसियों का आगमन हो, तिब्बतियों का पलायन या फिर श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों का मामला, भारत ने हमेशा मानवीय दृष्टिकोण अपनाया। लेकिन आज भारत एक ऐसे सवाल के सामने खड़ा है, जो सिर्फ मानवीयता का मुद्दा नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, संसाधनों के बंटवारे और सामाजिक ताने-बाने की रक्षा से जुड़ा हुआ है। यह सवाल है “रोहिंग्या मुसलमानों का भारत में अवैध प्रवेश और उनका भविष्य”।


हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट टिप्पणी है “यदि भारत में मौजूद रोहिंग्या विदेशी पाए जाते हैं तो उन्हें निर्वासित किया जाना चाहिए, ने इस बहस को लगभग समाप्त कर दिया है। न्यायालय ने साफ कहा है कि यूएनएचसीआर (UNHCR) के शरणार्थी कार्ड की भारत में कोई कानूनी वैधता नहीं है। इसका अर्थ यही है कि अब “मानवाधिकार” की आड़ में रोहिंग्याओं को बसाने की कोशिशों का कोई आधार नहीं बचता।

रोहिंग्या मुसलमान मुख्यतः म्यांमार के रखाइन (अराकान) प्रांत में बसा रहा है। उनका इतिहास जटिल है और स्थानीय बौद्ध समुदाय के साथ उनके संबंध हमेशा तनावपूर्ण रहा है। म्यांमार की सरकार उन्हें वैध नागरिक मानने से इंकार करती रही है। उनका तर्क है कि रोहिंग्या मूलतः बांग्लादेश से आए प्रवासी हैं, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में वहां बस गए थे।

2012 और 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में बड़े दंगे हुए। रोहिंग्या उग्रवादियों ने अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (ARSA) बनाई और स्थानीय बौद्ध एव हिंदुओं पर हमले शुरू किए। इसके जवाब में म्यांमार की सेना ने सख्त कार्रवाई की, जिससे लाखों रोहिंग्या बांग्लादेश और अन्य पड़ोसी देशों में भाग गए।

भारत कभी भी 1951 शरणार्थी संधि का हस्ताक्षरकर्ता नहीं रहा, इसलिए यहां “शरणार्थी” का कोई अंतरराष्ट्रीय दर्जा स्वतः लागू नहीं होता है। फिर भी बड़ी संख्या में रोहिंग्या बांग्लादेश की सीमा पार कर असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा से होते हुए उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड और यहां तक कि दक्षिण भारत तक फैल गए हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, आज भारत में 40,000 से अधिक रोहिंग्या मुसलमान अवैध रूप से रह रहे हैं। इनमें से हजारों ने आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र तक बनवा लिए हैं। जम्मू में करीब 6,000 से अधिक, दिल्ली-एनसीआर में हजारों, हरियाणा के मेवात और नूंह क्षेत्र में बड़ी बस्तियां, उत्तराखंड के हल्द्वानी एव बनभूलपुरा इलाकों में घनी आबादी, राजस्थान और तेलंगाना में भी अवैध बस्तियां है।

ARSA का सीधा संबंध पाकिस्तान की ISI, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद से पाया गया है। कई रोहिंग्या युवकों को भारत में कट्टरपंथी संगठनों ने अपने जाल में फंसा लिया है। मेवात और नूंह दंगे (हरियाणा) में रोहिंग्याओं की संलिप्तता सामने आई। हल्द्वानी (उत्तराखंड) में पुलिस ने हिंसक घटनाओं में रोहिंग्याओं की भूमिका को उजागर किया। जम्मू में आतंकी मॉड्यूल में शामिल रोहिंग्या भी पकड़े गए। असम और पश्चिम बंगाल पहले ही बांग्लादेशी घुसपैठ से प्रभावित हैं। अब रोहिंग्याओं के बसने से कई राज्यों की जनसांख्यिकी (demography) बदलने का खतरा बढ़ गया है।

केंद्र सरकार ने लगातार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कहा है कि रोहिंग्याओं का भारत में रहना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। भारत UNHCR के कार्ड को मान्यता नहीं देता है। विदेशी अधिनियम 1946 और पासपोर्ट अधिनियम 1920 के तहत अवैध प्रवासियों पर कार्रवाई की जाएगी। भारत पहले ही बांग्लादेशी घुसपैठ से बोझ झेल रहा है, इसलिए रोहिंग्याओं को बसाने का सवाल ही नहीं है।

सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह भी बताया कि रोहिंग्या शरणार्थी नहीं, बल्कि अवैध घुसपैठिए हैं। उन्हें यहां बसाना भारत की संसद और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में है, न्यायपालिका इसमें दखल नहीं दे सकती। कोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है। अवैध रूप से घुसे रोहिंग्याओं को निर्वासित किया जा सकता है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति कोटिश्वर सिंह और न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता की पीठ ने दोहराया है कि UNHCR कार्ड का कोई कानूनी महत्व नहीं। यदि वे विदेशी हैं, तो उन्हें निर्वासित किया जाए।

अधिवक्ता प्रशांत भूषण और कोलिन गौसाल्वेस ने बच्चों और मानवीय आधार का हवाला दिया। लेकिन अदालत ने साफ कहा कि कानून और राष्ट्रीय सुरक्षा से ऊपर कुछ नहीं।

भारत में कई मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि रोहिंग्याओं को शरण देना चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि क्या भारत की जनता का मानवाधिकार नहीं है? जब संसाधन सीमित हैं, तो क्या करोड़ों भारतीयों के हिस्से का रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा छीनकर रोहिंग्याओं को दिया जाए? क्या मानवता सिर्फ अवैध प्रवासियों के लिए है, देशवासियों के लिए नहीं?

ARSA ने बौद्धों और हिंदुओं पर हमले किए। सामूहिक कब्रें बरामद हुईं। महिलाओं को धर्मांतरण के बाद ही छोड़ा गया, अन्यथा मार डाला गया। म्यांमार की सरकार ने इन्हीं कारणों से सख्त कानून बनाए, विवाह पर पाबंदी, परिवार नियोजन, धार्मिक स्वतंत्रता पर नियंत्रण यानि, म्यांमार के लिए रोहिंग्या आतंकी तत्व साबित हुए।

रोहिंग्या भारत में बसकर नौकरी, राशन, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं। कई जगह वे फर्जी दस्तावेज बनाकर सरकारी योजनाओं का लाभ ले रहे हैं। यह सीधे-सीधे भारतीय नागरिकों के अधिकारों पर डाका है।

अब अवैध रोहिंग्याओं की पहचान की जाए। विदेशी अधिनियम के तहत उन्हें म्यांमार या बांग्लादेश भेजा जाए। बांग्लादेश सीमा पर और सख्ती बरती जाए। जिन रोहिंग्याओं ने आधार या वोटर कार्ड बनवा लिए हैं, उन्हें रद्द किया जाए। भारत की जनता के अधिकारों को सर्वोपरि रखा जाए।

सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के बाद स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। रोहिंग्या भारत में अवैध प्रवासी हैं। UNHCR कार्ड उन्हें कोई सुरक्षा नहीं देता। भारत सरकार को उन्हें निर्वासित करने का पूरा अधिकार है। अब समय है कि मानवाधिकारवादियों को भी सच्चाई स्वीकार करनी होगी। भारत कोई अराजक भूमि नहीं जहां कोई भी आकर बस जाए। यदि रोहिंग्याओं को बसाना ही है तो वह म्यांमार और बांग्लादेश की जिम्मेदारी है, न कि भारत की। भारत के नागरिकों का पहला अधिकार है कि उनका देश सुरक्षित रहे, उनके संसाधनों का न्यायपूर्ण उपयोग हो और उनकी सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना को कोई बाहरी खतरा न पहुंचे।

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