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"स्वप्न–नश्वरता का द्वंद्व"

"स्वप्न–नश्वरता का द्वंद्व"

उपरोक्त सूक्ति मनुष्य के अस्तित्व के द्वंद्व को उद्घाटित करती है। स्वप्न अनन्तता के प्रतीक हैं—वे हमें क्षुद्र सीमाओं से परे ले जाकर अनंत संभावनाओं के आकाश में विचरने का अवसर प्रदान करते हैं। स्वप्न ही वह प्रेरक शक्ति है जो साधारण मानव को असाधारण साधनाओं की ओर प्रेरित करती है। यदि मनुष्य अपने स्वप्नों की सीमा बाँध ले, तो उसका जीवन जड़ और निस्तेज हो जाता है। अतः आवश्यक है कि हम अपने मानसपटल पर ऐसे विराट संकल्प अंकित करें, जिनमें काल की कोई बन्धन-रेखा न हो और जो हमें सतत् प्रगति-पथ पर अग्रसर करते रहें।


परंतु दूसरी ओर, जीवन की नश्वरता हमें स्मरण कराती है कि समय किसी के लिए रुकता नहीं। "आज ही अंतिम प्रहर है"—यह चेतना मनुष्य को आलस्य और प्रमाद से विमुक्त करती है। यदि हम प्रत्येक क्षण को अंतिम समझकर जिएँ, तो हर क्रिया में तात्कालिकता और गंभीरता का संचार होगा। इस भाव से जीवन जीना ही वास्तविक साधना है, जिसमें न तो विलम्ब का स्थान है और न ही व्यर्थ चिंतन का। जब स्वप्नों की अनन्तता और जीवन की क्षणभंगुरता का यह संगम साधक के हृदय में घटित होता है, तभी उसका अस्तित्व दीप्तिमान् एवं उद्देश्यपूर्ण बनता है। यही जीवन की परम साधना है—अनन्त स्वप्न और क्षणिक कर्म का समन्वय।


. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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