कलियुग का घोर प्रभाव और समाज की विडंबना
✍🏻 डॉ. राकेश दत्त मिश्रभारतीय संस्कृति और दर्शन में युगों का वर्णन एक गहन आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है। सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग—इन चार युगों में मानव समाज की चेतना और आचरण का अलग-अलग स्वरूप देखा जाता है। सत्ययुग में जहाँ धर्म और सत्य की प्रधानता रही, वहीं कलियुग को अंधकार, भ्रम, स्वार्थ और अधर्म का युग कहा गया है।
आज जब हम चारों ओर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि वास्तव में हम उसी कलियुग में जी रहे हैं, जिसका वर्णन पुराणों और धर्मग्रंथों में किया गया है। यहाँ सत्य की जगह असत्य, नीति की जगह अनैतिकता, सेवा की जगह स्वार्थ, और चरित्र की जगह धनबल सर्वोपरि हो गया है।
सबसे अधिक पीड़ा देने वाली बात यह है कि समाज में भ्रष्ट और अनैतिक लोग ही बड़े संगठन कर्ता, नेता और मार्गदर्शक बनते जा रहे हैं, जबकि सच्चे, ईमानदार और सेवा भाव से प्रेरित लोग हाशिए पर चले जाते हैं।
समाज की वर्तमान स्थिति
आज हम जिस समाज में जी रहे हैं, उसकी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि व्यक्ति की सच्चाई, त्याग, गुण और सेवा से अधिक महत्व उसके पास मौजूद धन और बाहरी आडंबर को दिया जाता है।
यदि किसी के पास पैसा है तो लोग उसकी ओर आकर्षित होते हैं।
यदि किसी के पास सत्ता है तो लोग उसके साथ जुड़ना चाहते हैं।
यदि किसी के पास दिखावटी संगठन है तो लोग उसके पीछे भीड़ बना लेते हैं।
परंतु किसी साधारण, ईमानदार और सच्चे व्यक्ति को, जिसके पास समाज की भलाई का वास्तविक दृष्टिकोण है, लोग उतना महत्व नहीं देते। यही समाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।
कलियुग के लक्षण और उनकी झलक
धर्मग्रंथों में कलियुग के जो लक्षण बताए गए हैं, वे आज के समाज में स्पष्ट दिखाई देते हैं।
सत्य का ह्रास – झूठ बोलना सामान्य बात हो गई है, सत्य बोलने वाला उपहास का पात्र बनता है।
धन की प्रधानता – मनुष्य के मूल्यांकन का आधार उसका धन है, न कि उसका चरित्र।
राजनीति में भ्रष्टाचार – जनप्रतिनिधि सेवा की भावना से नहीं, बल्कि स्वार्थ और लूट की भावना से कार्य करते हैं।
शिक्षा का व्यवसायीकरण – शिक्षा जो कभी संस्कार का आधार थी, आज धन कमाने का माध्यम बन चुकी है।
धर्म का बाजारीकरण – धार्मिक आयोजनों में भी पैसा और दिखावा प्रमुख हो गया है।
इन लक्षणों को देखकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज समाज कलियुग की गहरी पकड़ में है।
राजनीति और संगठन पर भ्रष्टाचार का असर
राजनीति को लोकतंत्र का आधार माना गया है, लेकिन आज लोकतंत्र भी धन और भ्रष्टाचार से प्रभावित हो गया है।
चुनाव में धनबल और बाहुबल का उपयोग – जनता उम्मीदवार के गुणों को देखकर नहीं, बल्कि उसके खर्च किए गए पैसों और जातिगत समीकरणों को देखकर वोट देती है।
संगठनों की साख का ह्रास – जो संगठन जनता की भलाई के लिए बनने चाहिए थे, वहाँ भी भ्रष्ट और स्वार्थी लोग पदाधिकारी बनकर बैठ जाते हैं।
नैतिकता का पतन – आज नेता समाज की सेवा के बजाय केवल अपने और अपने परिवार के हित साधने में लगे हैं।
यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, बल्कि समाज को भी पतन की ओर धकेल रही है।
जनता की मानसिकता
समाज की इस स्थिति के लिए केवल नेता और संगठन ही जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि आम जनता की सोच भी उतनी ही दोषी है।
जनता आज गुण और सेवा भावना की बजाय पैसे और तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता देती है।
चुनाव के समय लोग उम्मीदवार से यह सोचकर वोट लेते हैं कि वह हमें क्या देगा—शराब, पैसा, जातीय गौरव या पद का लालच।
समाज में आज व्यक्ति को उसके सद्गुणों से नहीं, बल्कि उसकी आर्थिक स्थिति और बाहरी चमक से आँका जाता है।
यह मानसिकता ही भ्रष्ट लोगों को आगे बढ़ाती है और सच्चे लोगों को पीछे धकेल देती है।
सामाजिक विडंबना
आज की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि—
जो व्यक्ति ईमानदार है, वह संघर्ष करता रह जाता है।
जो व्यक्ति सच्चाई और धर्म की राह पर चलता है, उसकी कद्र कम होती है।
जो व्यक्ति छल और भ्रष्टाचार करता है, वही समाज का बड़ा बन जाता है।
यह केवल विडंबना ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए अभिशाप है। यदि समाज के नेतृत्व में भ्रष्ट लोग आएँगे तो समाज कभी भी प्रगति की राह पर नहीं बढ़ सकता।
समाधान और दिशा
यदि समाज को इस अभिशाप से बचाना है तो हमें ठोस कदम उठाने होंगे।
शिक्षा और संस्कार पर ध्यान – बच्चों को बचपन से ही सत्य, ईमानदारी और सेवा का संस्कार देना होगा।
भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण – हर स्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानी होगी, चाहे भ्रष्ट व्यक्ति कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो।
वोट की शक्ति का सही उपयोग – हमें अपने वोट को बेचने के बजाय उसे एक जिम्मेदारी मानकर सही व्यक्ति को चुनना होगा।
सच्चे नेतृत्व को प्रोत्साहन – समाज को ऐसे लोगों का समर्थन करना चाहिए जो ईमानदारी और सेवा की भावना रखते हों।
धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना – हमें पुनः धर्म और अध्यात्म की ओर लौटना होगा ताकि समाज में नैतिकता का पुनर्जागरण हो सके।
निष्कर्ष
आज का समय कलियुग की सबसे गहरी तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत करता है। जहाँ भ्रष्ट लोग बड़े बन रहे हैं और ईमानदार लोग हाशिए पर जा रहे हैं, वहाँ समाज के भविष्य पर गहरी चिंता होना स्वाभाविक है।
लेकिन यदि समाज जागरूक हो, शिक्षा और संस्कार की नींव मज़बूत हो, और जनता सही व्यक्ति को आगे लाने का संकल्प करे, तो इस अंधकारमय स्थिति से निकलकर हम एक उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं।
ध्यान रखना होगा कि—
"धन से नहीं, चरित्र से मनुष्य महान बनता है।"
यदि समाज इस सत्य को स्वीकार कर ले, तो कलियुग का प्रभाव धीरे-धीरे कम होगा और समाज एक नई दिशा की ओर अग्रसर होगा।
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