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आपदा में अवसर: 78 साल बाद भी बाढ़ क्यों ‘स्थायी संकट’ बनी हुई है

आपदा में अवसर: 78 साल बाद भी बाढ़ क्यों ‘स्थायी संकट’ बनी हुई है

✍🏻 डॉ. राकेश दत्त मिश्र
आज़ादी के 78 वर्ष बाद भी हम हर मानसून वही तस्वीर देखते हैं—नदियाँ उफनती हैं, बांधों से पानी छोड़ा जाता है, तटबंध टूटते हैं, गाँव-शहर डूबते हैं, और राहत शिविरों में ज़िंदगियाँ ठिठुरती हैं। हर साल हज़ारों करोड़ रुपये “बाढ़ राहत” के नाम पर खर्च होते हैं, पर न तो स्थायी समाधान दिखता है, न पारदर्शिता। धीरे-धीरे यह धारणा गहरी होती गई है कि आपदा, अवसर बन चुकी है—ठेकेदारी, आपूर्ति, तटबंध निर्माण-सम्पोषण, और राजनीतिक घोषणाओं की ऐसी अर्थव्यवस्था, जिसमें पीड़ा स्थायी रहे तो भी चल जाता है, बल्कि कुछ के लिए ज़्यादा लाभकारी ही है।

1) समस्या का सार: मौसमी नहीं, संस्थागत विफलता

  • बाढ़ केवल प्रकृति की मार नहीं—यह योजना, शासन और जवाबदेही की दीर्घकालिक असफलता भी है।
  • नदी-व्यवहार की अनदेखी: नदियाँ जीवित तंत्र हैं; उनका बाढ़क्षेत्र (floodplain) स्वाभाविक रूप से फैलता-सिकुड़ता है। हमने बेतरतीब शहरीकरण, अतिक्रमण, और ऊँची-नीची सड़कों से उनके कंधे बाँध दिए।
  • तटबंध-केन्द्रित सोच: अस्थायी तटबंधों पर अनंत खर्च, पर समय पर रखरखाव नहीं। परिणाम—रिसाव, कटाव और ‘ब्रेच’ (टूटना) हर साल।
  • ऊपरी कैचमेंट की अनदेखी: पहाड़ों-जंगलों में अवैज्ञानिक सड़कें, खनन, वनों की कटाई—नीचे मैदानों में अचानक और तीव्र बाढ़।
  • ड्रेनेज की मौत: शहरों के नाले, प्राकृतिक जलमार्ग, तालाब—सब पाट दिए। पानी उतरना बंद; थोड़ी बारिश भी जलजमाव में बदल जाती है।
  • डेटा और समन्वय का संकट: कैचमेंट-टू-डेल्टा दृष्टि नहीं; अलग-अलग विभागों की फाइलें चलती हैं, नदी एक नहीं, कई अफसरशाहियों में बँट जाती है।

2) “आपदा-उद्योग” की संरचना: पैसा बहता कहाँ है?

  • जब पारदर्शिता नहीं होती, आपदा राहत खुद एक बाज़ार बन जाती है।
  • राहत बनाम पुनर्वास: टेंट, ट्रॉली, खाद्यान्न—बार-बार वही खर्च; स्थायी उन्नयन (उच्च भूमि पर बसावट, पक्के शेल्टर, जलनिकासी सुधार) नगण्य।
  • तटबंध-रखरखाव का ‘लाभ’: बरसात के पहले कागज़ी मरम्मत, बरसात में टूट-फूट, बाद में फिर बजट—चक्रीय ‘कामकाज’।
  • खरीद और ठेके: आपात-प्रक्रियाओं में खरीद होती है; अक्सर प्रतिस्पर्धा, गुणवत्ता जाँच और ऑडिट का अभाव—यहीं “अवसर” जन्म लेते हैं।
  • कागज़ी आकलन: क्षति-आकलन का पारदर्शी, तकनीकी और जन-सत्यापित ढाँचा नहीं; जिससे राहत का लक्षित वितरण भी संदिग्ध।

3) “हर साल ज़्यादा विकराल” क्यों?

  • जलवायु-परिवर्तन का तड़का: चरम वर्षा-घटनाएँ बढ़ रही हैं; कम दिनों में अधिक बरसात, फ्लैश-फ्लड का जोखिम।
  • अतिक्रमण की ‘स्थायी’ प्रवृत्ति: नदियों के पाट में बसावट, रेतीकरण और कटाव क्षेत्र में निर्माण—खतरा बढ़ाते हैं।
  • इन्फ्रास्ट्रक्चर की गलत डिज़ाइन: सड़क-रेल के एम्बैंकमेंट पानी की राह रोक देते हैं; पर्याप्त कल्वर्ट/स्पैन नहीं।
  • समय पर डिस्चार्ज-मैनेजमेंट की नाकामी: बिना समन्वय के बैराज/बांध से देर-सबेर पानी छोड़ना—नीचे अचानक आपदा।

4) जनता की कीमत पर राजनीति: घोषणाएँ बहुत, हिसाब कम

  • हर बाढ़ के बाद दौरे, मीटिंग, पैकेज, मुआवज़े—लेकिन ‘पोस्ट-इवेंट रिव्यू’ का कोई कठोर मानक नहीं। न सोशल ऑडिट, न थर्ड-पार्टी टेक्निकल ऑडिट, न ओपन डेटा। यदि हर खर्च का मेटाडेटा—किस मद में, किस एजेंसी ने, किस ठेकेदार को, किस तारीख़ को भुगतान—जियो-टैग्ड रूप में सार्वजनिक हो, तो आधा ‘आपदा-उद्योग’ अपने आप ढह जाए।

5) रास्ता क्या है?—नीति, तकनीक और नागरिक निगरानी का त्रिकोण

(क) नीति-सुधार

  • फ्लडप्लेन ज़ोनिंग कानून—नदी के स्वाभाविक बाढ़क्षेत्र में निर्माण-प्रतिबंध; उल्लंघन पर दंड व पुनर्स्थापना।
  • ड्रेनेज मास्टरप्लान—हर शहर/ज़िले के लिए वैज्ञानिक जलनिकासी योजना; नालों, तालाबों, वर्षाजल-मार्गों का वैधानिक संरक्षण।
  • कैचमेंट-टू-डेल्टा गवर्नेंस—ऊपरी/निचले राज्यों के बीच रियल-टाइम डेटा-शेयरिंग, संयुक्त ऑपरेशन प्रोटोकॉल।
  • राहत से पुनर्वास की ओर शिफ्ट—उच्चभूमि पर फ्लड-रेज़्ड सेटलमेंट्स, बहु-उद्देश्यीय स्कूल-शेल्टर (उच्च प्लिंथ, सोलर, शौचालय, जलापूर्ति)।
  • क्लाइमेट-रिज़िलिएंट कृषि—फ्लड-टॉलरेंट फसलें, सूक्ष्म बीमा, सामुदायिक भंडारण, मछलीपालन/मखाना/बागवानी के क्लस्टर।

(ख) तकनीक-सक्षम पारदर्शिता

  • ओपन बजट डैशबोर्ड—बाढ़-संबंधी हर रुपये का ओपन-डेटा: टेंडर, ठेकेदार, प्रगति-फोटो, भुगतान-तिथि, जीपीएस-लोकेशन।
  • थर्ड-पार्टी टेक्निकल ऑडिट—IITs/NIH/किसी मान्य संस्थान से तटबंध/ड्रेनेज कार्यों की सालाना परीक्षा।
  • रियल-टाइम हाइड्रोलॉजी—ऑटोमेटेड रेन-गेज, रिवर-गेज, रिमोट सेंसिंग; एर्ली वार्निंग एसएमएस/IVRS गाँव-स्तर तक।
  • डिजिटल क्षति-आकलन—ड्रोन मैपिंग + पंचायत सत्यापन; मुआवज़ा DBT से, स्टेटस ट्रैकर सार्वजनिक।

(ग) समाज-आधारित समाधान

  • वार्ड/पंचायत फ्लड कमेटियाँ—पूर्व-सत्र योजना, सुरक्षित मार्ग, नाव/राशन/दवा सूची, विशेष ध्यान: वृद्ध, दिव्यांग, गर्भवती, शिशु।
  • स्कूल-आश्रय का मानकीकरण—हर 5–7 किमी पर एक बहुउद्देशीय उच्च-स्थापित आश्रय-सह-विद्यालय।
  • स्वयंसेवी तंत्र का संस्थानीकरण—एनजीओ/एनसीसी/एनएसएस के साथ MoU, वार्षिक ड्रिल।
  • लास्ट-माइल हेल्थ—चलित क्लीनिक, क्लोरीनेशन/ORS किट, मानसिक स्वास्थ्य समर्थन; बाढ़-पश्चात महामारी रोकथाम प्रोटोकॉल।

6) तटबंध-निर्भरता से नदी-समझ तक: रणनीति में बदलाव

  • जहाँ आवश्यक, वहाँ तटबंध; पर उनकी डिज़ाइन जीवन, स्पेसिफिकेशन, और पब्लिक मॉनिटरिंग तय हो।
  • रिवर-रिस्टोरेशन—पुराने जलमार्गों का पुनरुद्धार, बफर ज़ोन, रेत-निकासी का वैज्ञानिक नियमन।
  • रूम-फॉर-रिवर—नदी को फैलने की जगह देकर शिखर बाढ़-ऊँचाई घटाना; संवेदनशील बस्तियों का चरणबद्ध पुनर्स्थापन।
  • कनेक्टिविटी में जल-मार्ग—सड़कों/रेल-एम्बैंकमेंट में पर्याप्त वाइड स्पैन और कल्वर्ट; “डिज़ाइन बाय ड्रेनेज”, न कि “डिज़ाइन बाय शॉर्टकट”।

7) जवाबदेही के औज़ार: डर का नहीं, भरोसे का तंत्र

  • बाढ़ आयोग (स्टैच्यूटरी)—वार्षिक स्टेट ऑफ़ द फ्लड रिपोर्ट अनिवार्य; श्वेतपत्र में लक्ष्य बनाम उपलब्धि, खर्च बनाम परिणाम।
  • सोशल ऑडिट + सिविल सोसाइटी ज्यूरी—ग्राम/वार्ड स्तर पर कार्यों का सामुदायिक सत्यापन, सार्वजनिक सुनवाई।
  • कॉन्ट्रैक्टर परफॉर्मेंस रजिस्टर—किसने कहाँ काम किया, कितनी बार दोष पाए गए; ब्लैकलिस्टिंग पारदर्शी।
  • लोक वित्त का ‘रेड-फ्लैग’ तंत्र—यदि कोई भुगतान/टेंडर मानकों से विचलित, तो स्वतः सार्वजनिक चेतावनी और समीक्षा।
  • सूचना का अधिकार 2.0 (प्रो-एक्टिव)—RTI की नौबत ही न आए; डिफ़ॉल्ट रूप से दस्तावेज़, ड्रॉइंग, बोज़ेट, फोटोज़ सार्वजनिक।

8) “आपदा में अवसर” को “आपदा में सुधार” कैसे बनाएँ?

  • आपात-खरीद के बावजूद—मूल्य-तुलना, गुणवत्ता-टेस्ट, और इन्वेंटरी ट्रैकिंग को डिजिटाइज़ करें; हर पैकेट का सोर्सिंग-पथ सार्वजनिक।
  • राहत की जगह ‘रिज़िलिएंस फंड’—कुल बजट का निश्चित हिस्सा केवल टिकाऊ कार्यों पर: ड्रेनेज-रीस्टोर, फ्लड-शेल्टर, ऊँचाई बढ़ाना, रिवर-रीकनेक्ट।
  • ‘इनोवेशन सैंडबॉक्स’—स्थानीय स्टार्टअप/संस्थान: कम-लागत उन्नत चेतावनी उपकरण, पोर्टेबल वॉटर प्यूरिफ़िकेशन, मॉड्यूलर शेल्टर।
  • जेंडर-सेंसिटिव योजना—महिलाओं, बच्चों, दिव्यांग और बुज़ुर्गों की ज़रूरतों को केंद्र में रखकर शौचालय, सुरक्षा, स्वच्छता, पोषण, सुरक्षित स्पेस।

9) मीडिया और नागरिकों की भूमिका

  • डेटा-परक रिपोर्टिंग—“कितना पानी चढ़ा” से आगे बढ़कर—कौन-सा तटबंध कहाँ टूटा, आख़िरी मरम्मत कब हुई, किस ठेकेदार ने किया, कितने में?
  • बजट-ट्रैकिंग कैंपेन—स्थानीय पत्रकार/एनजीओ मिलकर ‘फ्लड स्पेंडिंग ट्रैकर’ चलाएँ; मासिक अपडेट, ग्राम-सभा में प्रस्तुति।
  • कानूनी हस्तक्षेप—फ्लडप्लेन अतिक्रमण, ड्रेनेज-पट्टियों पर निर्माण के ख़िलाफ़ लोकहित याचिकाएँ; न्यायालय से फ्लड ज़ोन मैप्स को वैधानिक मान्यता।
  • सामुदायिक मेमोरी—हर बाढ़ की ‘कम्युनिटी क्रॉनिकल’: फोटो, मानचित्र, अनुभव—ताकि सीख दस्तावेज़ बने, हर साल नया पहिया न बनाना पड़े।

10) निष्कर्ष: पीड़ा नहीं, नीति बदलें

बाढ़ किसी भी सभ्यता की अंतिम परीक्षा है—क्या हम प्रकृति के साथ समझौता करते हैं, या उसे शत्रु मानकर लड़ते रहते हैं? 78 साल का अनुभव बताता है कि त्वरित राहत और तटबंध-राजनीति से आगे बढ़े बिना हालात नहीं बदलेंगे। हमें पारदर्शिता को अनिवार्य, जवाबदेही को संस्थागत, और नदी-तंत्र को केंद्र में रखना होगा।

जब हर रुपये का हिसाब सार्वजनिक होगा; जब हर तटबंध की गुणवत्ता पर जन-नज़र होगी; जब हर बस्ती का पुनर्स्थापन वैज्ञानिक मानकों से होगा; जब हर बारिश से पहले हमारी तैयारी ड्रिल से परखी जाएगी—तभी “आपदा में अवसर” की धंधेबाज़ी टूटेगी और आपदा में सुधार की संस्कृति जन्म लेगी। यह लड़ाई प्रशासन की एक फाइल से नहीं जीती जाएगी—यह जीती जाएगी नागरिकों की सामूहिक माँग, डेटा की रोशनी और नीति-निर्णय की हिम्मत से। अब समय है कि बाढ़ हमारी नियति नहीं, हमारी नीति बने—और स्थायी समाधान, स्थायी संस्कृति।

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