श्री गणेश चतुर्थी व्रत का महत्व एवं उपासना के रुप में किए जानेवाले विधियों का शास्त्र !

श्री गणेश चतुर्थी हिंदुओं का एक बड़ा पर्व है। गणेशोत्सव के दिनों में गणेशतत्त्व सामान्य दिनों की तुलना में पृथ्वी पर सहस्र गुना अधिक सक्रिय रहता है। इस समय श्री गणेश की उपासना करने से साधक को गणेशतत्त्व का अधिक लाभ मिलता है। सुखकर्ता, विघ्नहर्ता और अष्टदिक्पाल श्री गणेश की भावपूर्ण पूजा करके भक्त उनके कृपाशीर्वाद की आकांक्षा करते हैं।
यह व्रत सिद्धिविनायक व्रत के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः यह व्रत प्रत्येक परिवार में होना चाहिए। यदि सभी भाई एक साथ रहते हों और उनका धन कोष व रसोई (चूल्हा) साझा हो, तो एक ही मूर्ति की पूजा पर्याप्त है। किंतु यदि धन कोष और रसोई किसी कारणवश अलग-अलग हों, तो प्रत्येक घर में अलग गणेशमूर्ति की स्थापना करनी चाहिए। जिन परिवारों में परंपरा से केवल एक ही गणपति की स्थापना होती है, वहाँ जिस भाई में अधिक श्रद्धा हो, उसके घर पर गणपति स्थापित करना चाहिए।
नई मूर्ति स्थापित करने का कारण
यद्यपि पूजा के लिए गणपति पहले से हों, फिर भी नई मूर्ति ही लानी चाहिए। चतुर्थी के समय पृथ्वी पर गणेश तरंगें अत्यधिक मात्रा में कार्यरत होती हैं। यदि उनका आवाहन पुरानी मूर्ति में किया जाए तो वह अत्यधिक शक्तिशाली हो जाती है। इतनी शक्तिशाली मूर्ति की वर्षभर पूजा उचित विधि से करना कठिन हो जाता है। इसलिए हर वर्ष नई मूर्ति स्थापित करके बाद में उसका विसर्जन करना ही शास्त्रोचित है।
मूर्ति कैसी होनी चाहिए?
मूर्ति चिकनी मिट्टी से बनी होनी चाहिए। 'प्लास्टर ऑफ पेरिस या कागज से बनी मूर्तियाँ' शास्त्रविरोधी एवं पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाली होती हैं। मूर्ति की ऊँचाई 1 से 1.5 फुट तक होनी चाहिए। मूर्ति शास्त्रानुसार, पीढ़े पर विराजमान, बायीं सूँड वाली और प्राकृतिक रंगों से रंगी होनी चाहिए। केवल परंपरा या मन की इच्छा से नहीं, बल्कि शास्त्रसम्मत गणेशमूर्ति का पूजन करना चाहिए।
शास्त्रविधि और परंपराएँ
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मिट्टी के गणपति की प्राणप्रतिष्ठा कर पूजा करके उसी दिन विसर्जन करना शास्त्रविधि है। किंतु मनुष्य उत्सवप्रिय है, इसलिए गणपति को डेढ़, पाँच, सात या दस दिन तक रखकर उत्सव मनाया जाने लगा। कई लोग (ज्येष्ठा) गौरी के साथ गणपति का विसर्जन करते हैं। किसी परिवार में परंपरा पाँच दिन की है और वे उसे डेढ़ या सात दिन का करना चाहें, तो कर सकते हैं। रूढ़ि के अनुसार पहले, दूसरे, तीसरे, छठे, सातवें या दसवें दिन विसर्जन किया जाता है।
स्थापना विधि
पूजा की चौकी पर चावल रखकर उस पर मूर्ति स्थापित की जाती है। मूर्तिपूजन से उसमें शक्ति आती है और वह चावल भी शक्ति से परिपूर्ण हो जाते हैं, जिन्हें वर्षभर प्रसाद रूप में ग्रहण किया जा सकता है।
मूर्ति घर कैसे लाएँ?
गणेशमूर्ति को एक दिन पूर्व लाना उत्तम है। घर के प्रमुख पुरुष अन्य लोगों के साथ जाकर मूर्ति लाएँ। जो मूर्ति लाने वाले हैं वे हिंदू धर्म में बताई गई वेशभूषा (अंगरखा-धोती/पायजामा, टोपी) धारण करे। मूर्ति पर स्वच्छ वस्त्र (रेशमी, सूती या खादी) ओढ़ाए । मूर्ति का मुख लाने वाले की ओर और पीठ आगे की ओर रहे। इससे लाने वाले को सगुण तत्त्व तथा दूसरों को निर्गुण तत्त्व का लाभ मिलता है। मूर्ति लाते समय "गणपति बाप्पा मोरया" का जयघोष और नामजप करते हुए लाना चाहिए।
घर के बाहर पहुँचने पर सुहागिन महिला मूर्ति लाने वाले के चरणों पर दूध और पानी डाले। घर में प्रवेश से पहले मूर्ति का मुख सामने की दिशा में करना चाहिए, फिर आरती करके मूर्ति को अंदर लाएँ।
मूर्ति को सजाए हुए मंडप में पूजा की चौकी पर अक्षत रखकर स्थापित करें। सजावट पूरी होने तक मूर्ति को सुरक्षित ढककर रखें। मूर्ति का मुख पश्चिम दिशा में रखना श्रेष्ठ है; यदि संभव न हो, तो पूजा करने वाला इस प्रकार बैठे कि उसका मुख दक्षिण या पश्चिम की ओर न हो। मूर्ति का मुख दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह उग्र देवताओं की दिशा मानी जाती है।
पूजा-विधि
गणपति के रहते प्रतिदिन सुबह-शाम पंचोपचार पूजन करें और आरती, मंत्रपुष्प का पाठ करें।
उत्तरपूजा
विसर्जन से पूर्व उत्तरपूजा करें, जिसमें आचमन, संकल्प, चंदन, अक्षत, पुष्प, हल्दी-कुंकुम, दूर्वा, धूप-दीप, नैवेद्य अर्पण किए जाते हैं। आरती एवं मंत्रपुष्पांजलि के पश्चात मूर्ति को विसर्जन हेतु ले जाएँ।
विसर्जन
गणपति का जलाशय में विसर्जन करते समय दही, पोहे, नारियल, मोदक आदि साथ दें। विसर्जन स्थल पर आरती करके मूर्ति का विसर्जन करें।
चतुर्थी को चंद्रदर्शन वर्जित
गणेश चतुर्थी को 'कलंकित चतुर्थी' कहा जाता है। इस दिन चंद्रदर्शन वर्जित है। यदि भूलवश चंद्रदर्शन हो जाए तो "श्रीमद्भागवत" के 10वें स्कंध के 56-57 अध्याय में वर्णित स्यमंतक मणि की चोरी की कथा श्रद्धापूर्वक पढ़नी या सुननी चाहिए।
इसका उपाय यह भी बताया गया है कि भाद्रपद शुक्ल तृतीया या पंचमी के दिन चंद्रमा का दर्शन कर लेना चाहिये। ऐसा करने से चतुर्थी के दर्शन का दोष नहीं रहता। यदि चतुर्थी को चंद्रदर्शन हो ही जाए, तो ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित निम्न मंत्र का 21, 54 या 108 बार जप करके, अभिमंत्रित जल पीना चाहिए
"सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥"
अर्थ : हे सुकुमार! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा और जांबवान ने उस सिंह का संहार किया; अतः तू शोक मत कर, अब यह स्यमंतक मणि तेरा है।
📖 संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ 'श्री गणपति'
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