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" प्रेत की उदारता "

" प्रेत की उदारता "



प्राचीन समय की बात है। मोक ग्राम में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था। किसी तरह पूजा-पाठ कराकर वह अपना जीवन यापन करता था। कभी-कभी तो भूखे पेट सिर्फ पानी से संतोष करना पड़‌ता था। पंडिताइन इस जिल्लत भरी जिन्दगी से तंग आ चुकी थी। एक दिन वह पंडितजी से बोली कि आखिर कब तक हमलोग जिन्दगी को बोझ बनाकर ढोते रहेंगे। क्यों नहीं आप गाँव से बाहर जाकर कोई काम करके धन कमाते हैं। पंडितजी को पत्नी की बात तीर के समान चुभ गयी। उन्होंने निश्चय किया कि कहीं बाहर जाकर कोई काम करूंगा। पंडितजी ने पंडिताइन से कहा कि रास्ते के लिए कुछ नास्ता बना कर दे दो। घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था। लेकिन पंडिताइन पड़ोस से थोड़ा आँटा माँगकर ले आई। उसने उसकी रोटियाँ बनाकर पंडितजी को दे दिया।

पत्नी से रोटी की पोटली लेकर पंडितजी अपनी यात्रा पर निकल पड़े । चलते-चलते वे एक घने जंगल में पहुँच गए। दोपहर हो चुकी थी और पंडितजी को भूख भी सता रही थी। निकट ही एक कुआं देख सहसा वे रुक गए।खाना खाने के लिए वे एक छायेदार वृक्ष के नीचे बैठ गए। पंडितजी ने पोटली खोलकर रोटियाँ गिनी तो पूरे सात रोटी थे। वे कहने लगे कि एक खाऊँ या दो खाऊँ या तीन खाऊँ या सातों को खा जाऊँ। पंडितजी जिस वृक्ष के नीचे खाना खा रहे थे उसपर सात प्रेत रहते थे। ज्यों ही उन्होंने पंडित जी के मुख से सातों को खा जाने की बात सुने त्यों ही वे परेशान हो उठे। वे सातों तत्काल पंडितजी के समक्ष प्रकट हुए और हाथ जोड़कर बोले महाराज हमसे कौन - सी गलती हो गई जो आप हमें खाना चाहते हैं। आप हमें क्षमा कर दें। पंडितजी प्रेतों की बात सुनकर भौच्चक रह गए, लेकिन शीघ्र ही अपने आप को संभाल लिया। उन्होंने प्रेतों से कहा कि यदि तुम मेरी गरीबी दूर कर दोगे तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा। प्रेतों ने पंडितजी की शर्त को सहर्ष मान लिया। उन्होंने पंडितजी को एक घड़ा दिया और कहा कि आपको जिस चीज की आवश्यकता होगी आप इस घड़े से माँग लीजिएगा। इतना कहकर सभी प्रेत गायब हो गए।

पंडितजी घड़ा लेकर खुशी-खुशी गाँव लौट पड़े। पंडितजी जब घर पहुंचे तो पत्नी उनके हाथ में खाली घड़ा देख उन पर बरस पड़ी। लेकिन जब पंडितजी ने घड़े के महत्त्व के बारे में बताया तो वह खुशी से नाच उठी। वह पंडितजी से बोली कि मुझे पकवान खाने की इच्छा हो रही है, क्या आप मंगवा सकते हैं? पंडितजी ने घड़े से कहा कि जल्दी से अच्छे-अच्छे पकवान मंगवाओ। पंडितजी के कहने भर की देर थी कि एक बड़े थाल में विभिन्न प्रकार के पकवान आ गए। दोनों ने छककर पकवान उड़ाये। अब उनके दिन मजे में कटने लगे।

एक दिन पंडिताइन पंडितजी से बोली कि क्यों ना हम अपने पड़ोसियों को एक दिन भोजन कराएँ।
उन्हें भी तो पता चलना चाहिए कि हम कितने स्वादिष्ट खाना खाते हैं। पंडितजी पत्नी की बात से सहमत हो गए। पंडितजी सभी गाँव वाले को न्योता दे आए। सभी ने जमकर खाना खाया और पंडितजी को धन्यवाद दिया।

पंडितजी का एक पड़ोसी था। वह बड़ा ही धूर्त और मक्कार था। उसने किसी तरह पंडित जी से घड़े का राज मालूम कर लिया। उसने पंडितजी के घड़े को चुरा लिया और ठीक वैसा ही घड़ा उनके घर में रख दिया। सुबह जब पंडित जी ने घड़े से कुछ माँगा तो उन्हें नहीं मिला। पंडितजी काफी दुःखी हुए। अब उनके समक्ष फिर पहले वाली स्थिति उत्पन्न हो गई।

तब वे विवश होकर पुनः उसी कुआं के पास पहुंचे और पहले की तरह बोल उठे - "एक खाऊँ या दो खाऊँ या तीन खाऊँ या सातों को खा जाऊँ। 'इतना सुन सातों प्रेत पुनः प्रकट हुए और क्षमा याचना करते हुए पंडितजी से आने का कारण पूछा। पंडितजी बिगड़‌कर बोले कि तुमलोगों ने मेरे साथ धोखा किया है। तुम्हारा घड़ा माँगने पर कुछ भी नहीं देता है। मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर नहीं छोडूंगा। काफी आरजू मिन्नत के बाद पंडितजी उन्हें छोड़‌ने के लिए तैयार हुए। इस बार प्रेत ने पंडितजी को एक बकरी दिया और कहा कि आपको जिस वस्तु की जरूरत हो उस वस्तु का नाम लेकर बकरी के पीठ पर तीन डण्डा मार देगें तो आपको वह वस्तु मिल जाएगी। इतना कहकर प्रेत गायब हो गए ।

पंडितजी बकरी लेकर वापस घर लौट पड़े।
बकरी के प्रभाव से पंडितजी के दिन पुनः मजे से गुजरने लगे। उनकी उन्नति दिन दुगुनी रात चौगुनी होने लगी। पंडितजी की उन्नति देख उनका पड़ोसी जलने लगा। वह पुनः पंडितजी से उनकी खुशहाली का राज जानना चाहा लेकिन वे टाल गए। लेकिन कई बार आग्रह करने के बाद उन्होंने बकरी का राज कपटी एवं धूर्त पड़ोसी को बता दिया। अर्द्ध-रात्रि को पड़ोसी ने पंडितजी की बकरी को चुरा लिया और ठीक वैसी ही बकरी उनके घर में बाँध दिया। सुबह जब पंडितजी ने किसी वस्तु को माँग बकरी के पीठ पर डण्डा मारा तो उन्हें वह वस्तु नहीं मिली। वे क्रोधित हो बार-बार वही प्रक्रिया दोहराने लगे और अंततः बकरी मार खाते खाते मर गयी।


पंडितजी पुनः क्रोधित होकर उसी वृक्ष के नीचे पहुंचे और बोले - "एक खाऊँ या दो खाऊँ या तीन खाऊँ या सातों को खा जाऊँ।" पंडितजी की बात सुनकर सातों प्रेत उनकी कदमों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। वे बोले कि आखिर क्या गलती हो गई कि आप इतने क्रोधित हैं। पंडितजी ने सारी बात बता दी। प्रेत ने कहा कि सारी करतूत आपके पड़ोसी का है। इस बार हमलोग आपको एक रस्सी और एक डण्डा दे रहे हैं। यह रस्सी अपराधी को बाँधेगा और डण्डा उसकी पिटाई करेगा। इतना कहकर प्रेत गायब हो गए।
पंडितजी रस्सी और डण्डा लेकर वापस घर लौट पड़े। घर आकर पंडितजी ने रस्सी और डण्डे को हुक्म दिया कि अपराधी को मेरे सामने हाजिर करो। बस इतना कहना था कि रस्सी ने जाकर पंडितजी के पड़ोसी को जकड़ लिया और डण्डा उसकी पिटाई करने लगा। पड़ोसी किसी तरह गिरता-पड़‌ता पंडितजी के पास पहुँचा और गिड़‌गिड़ाने लगा। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया कि उसी ने घड़ा और बकरी चुराया है। उसने कहा कि आपके घड़े एवं बकरी मैं अभी लौटा देता हूँ। पंडितजी ने रस्से एवं डण्डे को छोड़ देने का आदेश दिया। रस्सी एवं डण्डा पुन: पंडितजी के पास आ गए। धूर्त पड़ोसी ने पंडितजी को घड़ा एवं बकरी वापस लौटा दिया। पंडितजी पुनः हँसी-खुशी जीवन व्यतीत करने लगे।


इस कहानी से सबसे बड़ी सीख यह मिलती है कि अपने दिल की बात सभी को नहीं बताना चाहिए। दुनिया में दोस्त कम मगर दुश्मन अधिक होते हैं। किसी से मित्रता भी करनी हो तो जाँच - परख कर करनी चाहिए। ऐसा करने से जीवन में धोखा खाने का डर कम रहता है। भोले-भाले व्यक्तित्त्व वाले का इस जमाने में कोई कद्र नहीं होता है, इसलिए जरूरत से ज्यादा भोला भी नहीं बनना चाहिए।




➡️सुरेन्द्र कुमार रंजन

( स्वरचित एवं अप्रकाशित लघुकथा)
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