हवा ऐसी चली पन्ने जिंदगी के खुल गये ।
डा रामकृष्ण मिश्र
हवा ऐसी चली पन्ने जिंदगी के खुल गये ।
दाग अन चाहे अनेक पता न कैसे धुल गये।।
तब विवशता की पकड़ ढीली न थी मजबूत थी
और परिसर कुपित अपनी छाँह भी अवधूत थी।
व्योम सी ऊँचाई के अस्तित्व के संस्पर्श से
चेतना की कथा गढ़ते और भी कुछ मिल गये।।
लिख रहा है धूप का आक्रोश एक नई किताब
हर कड़े आखर पिरोये जा रहे हैं बेहिसाब।
है लिखा जा रहा जो प्रारूप नये भविष्य का
सूँघ कर ही काँपते निष्प्राण से कुछ हिल गये।।
ऊँघता साहस अभी तक जागता तो रहा है
चमकती लोकेषणा का ज्वार उठ तो रहा है।
किन्तु कलही व्यंजना के स्वाद के संघर्ष अब
देखते ही देखते संसाधनों में ं घुल गये।। 76
डा रामकृष्ण, गया जी, बिहार।
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