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रिद्धि-सिद्धि के दातार विधा - कविता

रिद्धि-सिद्धि के दातार विधा - कविता

हर कार्य प्रारम्भ करते बाबा हम लेकर आपका नाम, दीप जलाकर पुष्प चढ़ाकर शुरु करते अपना काम। भोग लड़वन का लगातें आपके गजानंद सवेरे शाम, बुद्धि कौशल के देवता आपको कोटि-कोटि प्रणाम।।
शादी हो या कोई उद्धघाटन मुंडन अथवा गृह प्रवेश, सिद्धविनायक मंगलमूर्ति शुभम हर-लेते हो कलेश। लंबोदर गणपत गजानंद कोई कहते आपको गणेश, माॅं गौरी के पुत्र हो लाड़ले और पिता आपके महेश।।
रिद्धि-सिद्धि के दातार बरसाते रहना सभी पर प्यार, आपकी माया अपरम्पार जिसका पाया न यह पार। लम्बकर्ण गजवक्र विघ्न-विनाशक भूपति हो संसार, सब-पर दया करते है आप नही आपमे ये अंहकार।।
मात-पिता से बड़ा न कोई ये बात जगत को बताया, श्रेष्ठ वही है जिसने अपना दृढ़ पूर्वक कार्य निभाया। मेहनत का फल और समस्या हल स्वयं ही निकाला, कर परिक्रमा माता पिता की चारधाम तीर्थ बताया।।
आओ करे वन्दना हम मिलकर विघ्नहर्ता की आज, मोदक का हम भोग लगाए गणपत बप्पा के आज। हम दीन-दुःखी निर्धन दुर्बल की देते वो सर्वदा साथ, खुशियो का अमूल्य खज़ाना लुटायेंगे हम पे आज।।

रचनाकार
गणपत लाल उदय, अजमेर राजस्थान
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