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“साधु और बिच्छू की कथा से समाज और राष्ट्र सेवा का संकल्प”

“साधु और बिच्छू की कथा से समाज और राष्ट्र सेवा का संकल्प”

✍️ आलेख (लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र)
1. प्रस्तावना – सेवा का मार्ग और उसकी चुनौतियाँ

जीवन एक निरंतर संघर्ष है। हर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयत्न करता है। कोई धन के पीछे भागता है, कोई पद-प्रतिष्ठा के पीछे, तो कोई समाज और राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देता है। परंतु समाज सेवा का मार्ग सरल नहीं है।

मेरे व्यक्तिगत अनुभवों ने मुझे यह सिखाया है कि हमने कई कार्यक्रम बड़े उत्साह से किए, लेकिन पाया कि जिनके लिए कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे, उन्हीं को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे उदासीन रहे, जैसे उन्हें इस बात से कोई मतलब ही नहीं कि कोई उनके भले के लिए प्रयास कर रहा है। उस समय लगता है – जब समाज को ही परवाह नहीं, तब हम क्यों व्यर्थ में उनके लिए श्रम करें?

परंतु यह प्रश्न उठते ही मेरी स्मृति में उपनिषद की प्रसिद्ध कथा कौंध जाती है—साधु और बिच्छू की कथा। और फिर मन संभल जाता है, आत्मा सशक्त हो जाती है, और मैं पुनः समाज व राष्ट्र सेवा के संकल्प के साथ आगे बढ़ जाता हूँ।
2. साधु और बिच्छू की कथा – धर्म और स्वभाव का पाठ

कथा यह है –

एक साधु नदी किनारे ध्यान कर रहा था। उसने देखा कि एक बिच्छू बहते हुए पानी में डूब रहा है। साधु ने करुणा से प्रेरित होकर उसे बाहर निकालना चाहा। जैसे ही साधु ने बिच्छू को हाथ में लिया, बिच्छू ने डंक मार दिया। दर्द से साधु का हाथ छूट गया और बिच्छू फिर पानी में गिर पड़ा।

साधु ने फिर प्रयास किया, और फिर वही हुआ—बिच्छू ने डंक मार दिया। यह दृश्य देखकर एक व्यक्ति ने आश्चर्य से पूछा –
“महात्मन! यह बिच्छू बार-बार आपको डंक मार रहा है। फिर भी आप उसे क्यों बचा रहे हैं?”

साधु ने शांत भाव से उत्तर दिया –
“डंक मारना उसका स्वभाव है, और प्राण बचाना मेरा धर्म। यदि वह अपने स्वभाव से विमुख नहीं हो रहा, तो मैं अपने धर्म से विमुख क्यों हो जाऊँ?”

यह कथा जीवन का गूढ़ संदेश देती है – सच्चा सेवक दूसरों की प्रतिक्रिया से नहीं, अपने कर्तव्य और धर्म से प्रेरित होकर कार्य करता है।
3. समाज सेवा की वास्तविकता – अकृतज्ञता और उदासीनता

भारत में समाज सेवा की परंपरा प्राचीन है। महर्षि दधीचि से लेकर महात्मा गांधी तक असंख्य महापुरुषों ने समाज और राष्ट्र के लिए अपना जीवन न्योछावर किया। लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि सेवा करने वालों को प्रायः अकृतज्ञता ही मिलती है।
3.1 अकृतज्ञता का अनुभव

अक्सर वही लोग, जिनके लिए सेवा की जाती है, कृतज्ञता तो दूर, उदासीनता और उपेक्षा दिखाते हैं। सेवा करने वाला सोचता है कि उसकी मेहनत व्यर्थ गई।
3.2 समाज की उदासीनता

आज का समाज अपने निजी हितों में इतना उलझा हुआ है कि उसे सामूहिक भलाई की परवाह नहीं। लोगों को लगता है कि “जब तक हमें सीधा लाभ न हो, तब तक किसी कार्य का क्या महत्व?”
3.3 उपहास और आलोचना

कभी-कभी समाजसेवक का मज़ाक उड़ाया जाता है, उसकी नीयत पर शक किया जाता है। आलोचना के तीर उस पर चलाए जाते हैं, जो सेवा करता है।
3.4 मन की दुविधा

ऐसी स्थितियों में स्वाभाविक है कि मन विचलित हो। प्रश्न उठता है—क्या हमें व्यर्थ में दूसरों के लिए संघर्ष करते रहना चाहिए?
4. गीता और उपनिषद का मार्गदर्शन

भारतीय दर्शन हमें इस दुविधा का समाधान देता है।


भगवद्गीता कहती है –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
अर्थात् हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता करने में नहीं।


उपनिषद कहते हैं – “स्वधर्मे निधनं श्रेयः।”
अर्थात अपने धर्म का पालन करना ही श्रेष्ठ है।


महर्षि पतंजलि योगसूत्र में कहते हैं – “कर्मण्यकर्म यः पश्येद्।”
अर्थात सच्चा योगी वही है जो कर्म करते हुए भी अहंकार से मुक्त हो।

इन शिक्षाओं से स्पष्ट है कि सेवा केवल फल प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि आत्मिक साधना है।
5. राष्ट्र सेवा का व्यापक आयाम

समाज सेवा और राष्ट्र सेवा में अंतर है, पर दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं।


शिक्षा का प्रसार – अशिक्षा हर बुराई की जड़ है। राष्ट्र सेवा का पहला कदम है—हर बच्चे तक शिक्षा पहुँचाना।


नैतिकता और संस्कार – केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों का विकास भी आवश्यक है।


गरीबों और वंचितों का उत्थान – जब तक सबसे अंतिम व्यक्ति तक विकास नहीं पहुँचता, तब तक राष्ट्र पूर्ण नहीं।


पर्यावरण और प्रकृति की रक्षा – वृक्ष, जल, वायु, पर्वत—यही हमारी धरोहर हैं।


संस्कृति और धर्म का संरक्षण – अपनी जड़ों से कटकर कोई राष्ट्र महान नहीं बन सकता।
6. इतिहास के उदाहरण – जब सेवा को उपेक्षा मिली
6.1 महात्मा गांधी

गांधीजी को कई बार आलोचना झेलनी पड़ी। उनके सत्य और अहिंसा के मार्ग को कई लोगों ने “कमज़ोरी” कहा। परंतु उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
6.2 स्वामी विवेकानंद

उन्होंने जब समाज को आत्मबल और सेवा का संदेश दिया, तब कई लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया। लेकिन वही विवेकानंद आज पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा हैं।
6.3 भगत सिंह और क्रांतिकारी

स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों को समाज की आलोचना और अंग्रेजों की कठोरता झेलनी पड़ी। फिर भी वे अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए।
6.4 संतों और महापुरुषों का जीवन

कबीरदास, तुलसीदास, गुरु नानक—सभी को समाज की उपेक्षा सहनी पड़ी, परंतु वे अपने मार्ग पर अडिग रहे।
7. व्यक्तिगत अनुभव – निराशा से संकल्प की ओर

मैंने स्वयं समाज के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए।


शिक्षा के लिए प्रयास किए।


स्वास्थ्य शिविर लगाए।


पर्यावरण संरक्षण में वृक्षारोपण अभियान चलाया।


महिला सशक्तिकरण के लिए योजनाएँ बनाई।

परंतु अक्सर यह अनुभव हुआ कि समाज स्वयं उदासीन है। जिनके लिए यह सब किया, वही लोग इसमें रुचि नहीं लेते।

ऐसे क्षणों में मन टूटता है। लगता है – “क्यों व्यर्थ श्रम कर रहा हूँ?”

परंतु तभी साधु और बिच्छू की कथा स्मरण आती है। यह कथा मुझे याद दिलाती है कि सेवा मेरा धर्म है। यदि सामने वाला उदासीन है, तो भी मैं अपने धर्म से विमुख नहीं हो सकता।
8. सेवा का दार्शनिक आधार – आत्मोन्नति की साधना

सेवा केवल बाहरी कार्य नहीं, यह आत्मा की साधना है।


सेवा हमें अहंकारमुक्त करती है।


सेवा से हममें धैर्य और करुणा विकसित होती है।


सेवा हमें यह सिखाती है कि सच्चा सुख दूसरों को सुख देने में है।
9. आज की आवश्यकता – क्यों सेवा का संकल्प ज़रूरी है?

आज का समाज भौतिकता में उलझा हुआ है।


लोग स्वार्थ में डूबे हुए हैं।


परिवार और समाज टूटते जा रहे हैं।


राजनीति में नैतिकता कम होती जा रही है।

ऐसे समय में यदि समाजसेवी हार मान लें, तो स्थिति और बिगड़ जाएगी। इसलिए आवश्यक है कि हम सेवा का संकल्प लें और उसे निभाएँ।
10. निष्कर्ष – धर्म से विमुख न हों

साधु और बिच्छू की कथा हमें सिखाती है कि—


दूसरों की प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर हमें अपने धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए।


सेवा कर्तव्य है, न कि सौदा।


समाज उदासीन हो सकता है, पर हमारा संकल्प अडिग रहना चाहिए।

इसलिए मैं पुनः संकल्प लेता हूँ—
“चाहे समाज मेरी कद्र करे या न करे, चाहे लोग समझें या न समझें, मैं समाज और राष्ट्र सेवा के मार्ग पर चलता रहूँगा। यही मेरा धर्म है, यही मेरा संकल्प है, और यही मेरे जीवन का उद्देश्य है।”

🖋️ लेखक – डॉ. राकेश दत्त मिश्र



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