अधर्म पर धर्म की विजय: भगवान श्रीकृष्ण का अमर जीवन दर्शन
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भगवान श्रीकृष्ण, एक ऐसे महानायक जिनके जीवन ने पूरी दुनिया को अधर्म और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा दी। उनका जीवन केवल एक अवतार की कहानी नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का एक सम्पूर्ण ग्रंथ है। गीता के माध्यम से उन्होंने भ्रमितों को सही राह दिखाई और दुखियों को न्याय दिलाया। उनका जीवन त्याग, प्रेम, और कर्तव्य का अद्वितीय उदाहरण है, जिसके लिए उन्हें भारी कीमत भी चुकानी पड़ी। जन्म लेते ही अपने माता-पिता से अलग होना, जिस स्थान पर पले-बढ़े उसे छोड़ना और जीवन भर कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उन्हें बदनाम किया गया, लांछन सहे और यहाँ तक कि श्राप भी मिला। अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपने वंश की दुर्दशा भी देखी, लेकिन इन सब के बावजूद उनके चेहरे की मधुर मुस्कान कभी तिरोहित नहीं हुई। उन्होंने कभी अपने दुखों की काली छाया अपने भक्तों की आशाओं पर नहीं पड़ने दी, क्योंकि उनका अवतार ही सभी का कष्ट हरने के लिए हुआ था।
द्वापर युग का भीषण समय - द्वापर युग में परिस्थितियाँ बड़ी भयावह थीं। राजा निरंकुश हो चुके थे और प्रजा परेशान थी। न्याय मांगने वालों को काल कोठरी नसीब होती थी और अराजकता का बोलबाला था। चारों ओर भोग-विलास का आलम छाया हुआ था। इसी समय मथुरा का राज्य कंस के हाथों में था। कंस एक क्रूर और पाषाण हृदय राजा था। वैसे तो वह अपनी बहन देवकी से बहुत प्यार करता था, लेकिन जैसे ही उसे यह मालूम हुआ कि देवकी का आठवाँ पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा, उसने अपनी बहन और बहनोई वासुदेव को काल कोठरी में डाल दिया। किसी भी तरह का खतरा मोल न लेने की इच्छा के कारण कंस ने देवकी के पहले छह पुत्रों की भी निर्ममता से हत्या कर दी।
ब्रह्मलोक में स्मर, उद्रीथ, परिश्वंग, पतंग, क्षुद्र्मृत और घ्रिणी नाम के छह देवता हुआ करते थे। ये ब्रह्माजी के अत्यंत कृपापात्र थे और उनका स्नेह इन पर सदा बना रहता था। ब्रह्माजी इनकी छोटी-मोटी गलतियों को नजरअंदाज कर देते थे, जिससे धीरे-धीरे इनके मन में अहंकार पनपने लगा। वे अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझने लगे। एक दिन बात-बात में इन्होंने ब्रह्माजी का अनादर कर दिया। क्रोधित होकर ब्रह्माजी ने उन्हें श्राप दे दिया कि तुम लोग पृथ्वी पर दैत्य वंश में जन्म लो। श्राप सुनते ही उन छहों की अक्ल ठिकाने आ गई और वे बार-बार ब्रह्माजी से क्षमा याचना करने लगे। ब्रह्माजी को उन पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि जन्म तो तुम्हें दैत्य वंश में लेना ही पड़ेगा, लेकिन तुम्हारा पूर्व ज्ञान बना रहेगा। समय के अनुसार, उन छहों ने राक्षसराज हिरण्यकश्यप के घर जन्म लिया। इस जन्म में अपने पूर्व ज्ञान के कारण उन्होंने कोई गलत काम नहीं किया। उन्होंने अपना सारा समय ब्रह्माजी की तपस्या में बिताया और उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा। दैत्य योनि के प्रभाव से उन्होंने ऐसा वर माँगा, "हमारी मौत न देवताओं के हाथों हो, न गंधर्वों के, और न ही हम हारी-बीमारी से मरें।" ब्रह्माजी ने "तथास्तु" कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए। इधर हिरण्यकश्यप अपने पुत्रों के देवताओं की उपासना करने से नाराज था। यह बात मालूम होते ही उसने उन छहों को श्राप दे दिया कि तुम्हारी मौत देवता या गंधर्व के हाथों नहीं, बल्कि एक दैत्य के हाथों ही होगी। इसी शाप के वशीभूत होकर उन्होंने देवकी के गर्भ से जन्म लिया और कंस के हाथों मारे गए। मृत्यु के बाद उन्हें सुतल लोक में जगह मिली।
कंस वध और माँ की ममता - कंस वध के बाद जब श्रीकृष्ण अपनी माँ देवकी के पास गए, तो माँ ने उनसे उन छहों पुत्रों को देखने की इच्छा जताई, जिन्हें कंस ने जन्मते ही मार डाला था। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माँ की इच्छा पूरी करने के लिए सुतल लोक से उन छहों को वापस लाकर माँ से मिलवाया। प्रभु के सानिध्य और कृपा से वे फिर से देवलोक में अपना स्थान पा सके।
श्रीकृष्ण का जीवन हमें सिखाता है कि जीवन में कितनी भी कठिनाइयां क्यों न आएं, हमें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। उनका जीवन त्याग, प्रेम, और कर्तव्य का एक अद्वितीय उदाहरण है, जो हमें हमेशा सही राह पर चलने की प्रेरणा देता रहेगा।
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