जो जैसा होता है, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है
✍🏻 डॉ. राकेश दत्त मिश्र
मानव जीवन का मूल आधार उसकी दृष्टि और मानसिकता है। व्यक्ति जिस प्रकार का होता है, उसकी सोच-समझ, अनुभव और संस्कार जिस दिशा में होते हैं, वह उसी आधार पर दूसरों को देखता और परखता है। यह स्वाभाविक है कि एक दर्पण जिस चेहरे के सामने रखा जाता है, वही प्रतिबिंबित करता है। मनुष्य का मन भी दर्पण के समान है—जो उसके भीतर है, वही बाहर झलकता है। इसी सन्दर्भ में यह कहावत प्रचलित है— “जो जैसा होता है, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है।”
यह वाक्य केवल एक सामान्य कथन नहीं है, बल्कि यह मानवीय स्वभाव और सामाजिक व्यवहार का गूढ़ दार्शनिक सत्य है। किसी की दृष्टि में संसार की वास्तविकता का आकार उसके अपने चरित्र और संस्कारों से निर्मित होता है। इसलिए यह विषय न केवल मनोविज्ञान का, बल्कि नैतिकता, अध्यात्म और सामाजिक विज्ञान का भी एक महत्वपूर्ण पहलू है।
मानव मन और दृष्टिकोण
मनुष्य का आचरण केवल बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं होता, बल्कि उसकी सोच, भावनाओं और वृत्तियों का भी प्रतिबिंब होता है। मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की perception (अनुभूति) उसके personality traits से गहराई से जुड़ी होती है।
यदि किसी व्यक्ति का मन शुद्ध और सरल है तो उसे दूसरों के कार्य भी सहज और शुभ प्रतीत होते हैं।
यदि उसका मन संदेह, ईर्ष्या या स्वार्थ से ग्रसित है तो वह दूसरों के प्रत्येक कार्य में भी वैसा ही दोष देखेगा।
यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई चश्मा पहनकर दुनिया देखता है—काला चश्मा पहनने वाला संसार को अंधकारमय देखेगा, जबकि गुलाबी चश्मा पहनने वाला उसी संसार को सौंदर्य और उल्लास से भरा हुआ मानेगा।
शास्त्रीय आधार
भारतीय शास्त्रों में इस विषय पर अनेक उदाहरण मिलते हैं।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—“मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है।” उसकी दृष्टि और कर्म उसके आंतरिक भाव का ही परिणाम हैं।
महाभारत में कौरव और पांडव दोनों ने कृष्ण को देखा, पर उनकी दृष्टि अलग थी। पांडवों के लिए कृष्ण ईश्वर के स्वरूप थे, जबकि दुर्योधन के लिए वे केवल एक साधारण व्यक्ति।
उपनिषदों में भी कहा गया है— “यथा भावं तदा भवति” अर्थात व्यक्ति जैसा भाव रखता है, वैसा ही अनुभव उसे संसार में होता है।
जीवन से जुड़े उदाहरण
एक सच्चा और ईमानदार व्यापारी दूसरों पर भी विश्वास करता है कि वे भी सत्यनिष्ठ होंगे, जबकि छल करने वाला व्यापारी हर किसी पर संदेह करता है।
एक शिक्षक यदि स्वयं गंभीर और ज्ञानवान है तो वह अपने विद्यार्थियों में भी ज्ञान की प्यास देखेगा, परंतु लापरवाह शिक्षक विद्यार्थियों को केवल समय व्यर्थ करने वाला समझेगा।
एक राजनीतिक नेता यदि सेवा की भावना से प्रेरित है तो वह जनता के हर सहयोग को सकारात्मक रूप में देखेगा, परंतु स्वार्थी नेता हर कार्य को वोट बैंक और लाभ के चश्मे से ही देखेगा।
समाज में इसके परिणाम
“जो जैसा होता है, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है” — यह प्रवृत्ति समाज के लिए सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रकार के परिणाम उत्पन्न करती है।
सकारात्मक प्रभाव
- जब व्यक्ति अपने भीतर करुणा और सद्भावना रखता है तो समाज में विश्वास और सहयोग का वातावरण बनता है।
- यह प्रवृत्ति भाईचारे और परस्पर सम्मान को बढ़ाती है।
- इससे सामूहिक कार्यों में सफलता मिलती है।
नकारात्मक प्रभाव
- जब व्यक्ति अपने दोषों को दूसरों पर आरोपित करता है तो संदेह, कलह और वैमनस्य बढ़ता है।
- निन्दा और आलोचना की प्रवृत्ति समाज में अशांति लाती है।
- इससे रिश्तों में टूटन और संस्थाओं में अविश्वास पनपता है।
साहित्य और दर्शन में प्रतिबिंब
हिंदी साहित्य और दर्शन में भी इस विषय को बार-बार रेखांकित किया गया है।
कबीरदास कहते हैं—
“दोष पराए देखि करि, चला हंस के हांस।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।”
अर्थात व्यक्ति दूसरों में दोष देखता है, पर अपने दोषों को भूल जाता है।
सूरदास ने गोपियों की दृष्टि से श्रीकृष्ण का वर्णन किया है—हर गोपी ने उन्हें अपने भाव के अनुसार देखा, किसी ने प्रेमी के रूप में, किसी ने ईश्वर के रूप में।
आधुनिक मनोविज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि व्यक्ति की projection tendency उसे अपने दोष दूसरों पर थोपने के लिए प्रेरित करती है।
व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा
इस कहावत से हमें यह सीख मिलती है कि यदि हमें दूसरों को सही रूप में समझना है तो पहले स्वयं को समझना होगा। अपने भीतर की नकारात्मकता को हटाकर सकारात्मकता विकसित करनी होगी।
यदि हम चाहते हैं कि लोग हमें विश्वास योग्य समझें तो हमें पहले विश्वास योग्य बनना होगा।
यदि हम चाहते हैं कि लोग हमें आदर दें तो हमें दूसरों का आदर करना होगा।
यदि हम चाहते हैं कि समाज हमें ईमानदार माने तो हमें पहले अपनी ईमानदारी सिद्ध करनी होगी।
आत्मशुद्धि का मार्ग
मानव का मन सहज ही दोष देखने की ओर झुकता है। इस प्रवृत्ति से बचने के लिए आत्मशुद्धि आवश्यक है।
सत्संग – अच्छे लोगों की संगति मनुष्य को सकारात्मक दृष्टिकोण देती है।
स्वाध्याय – शास्त्रों और साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की सोच को व्यापक बनाता है।
ध्यान और योग – यह मन को निर्मल और स्थिर करता है।
सेवा और परोपकार – दूसरों की भलाई करने से व्यक्ति के भीतर करुणा और उदारता बढ़ती है।
निष्कर्ष
अतः यह स्पष्ट है कि “जो जैसा होता है, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है” केवल एक कहावत नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत सत्य है। हमारी दृष्टि ही हमारी दुनिया है। जब हम अपने अंतःकरण को निर्मल और सकारात्मक बनाएँगे तो हमें दूसरों में भी अच्छाई दिखाई देगी।
समाज में शांति, विश्वास और सहयोग तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति अपनी मानसिकता को सुधारने का प्रयास करे। दोषारोपण और संदेह की बजाय सद्भावना और विश्वास की भावना अपनाए। तभी एक सशक्त, सौहार्दपूर्ण और प्रगतिशील समाज का निर्माण होगा।
✍🏻 डॉ. राकेश दत्त मिश्र
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