Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

“क्या कथावाचक के लिए ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं? तो आरक्षण के लिए जाति की अनिवार्यता क्यों?

 “क्या कथावाचक के लिए ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं? तो आरक्षण के लिए जाति की अनिवार्यता क्यों?

डॉ राकेश दत्त मिश्र 

भारत में सदियों से दो प्रमुख विचारधाराएँ समानांतर चलती रही हैं — एक आध्यात्मिक, जो धर्म, संस्कृति और परंपरा पर आधारित है; दूसरी सामाजिक, जो समता, अधिकार और प्रतिनिधित्व के प्रश्नों पर टिकी है। हाल के वर्षों में यह प्रश्न उभरकर सामने आया है कि “कथावाचक ब्राह्मण ही क्यों हो?” और जब कोई कहता है कि कथावाचक किसी भी जाति का हो सकता है, तो फिर एक सहज प्रतिक्रिया यह भी आती है — “फिर आरक्षण में जाति क्यों देखी जाती है?”

यह प्रश्न केवल विरोधाभास की ओर संकेत नहीं करता, बल्कि यह हमारे समाज की उन अंतर्विरोधी व्यवस्थाओं को सामने लाता है जो कभी धर्म के नाम पर, कभी राजनीति के नाम पर, और कभी समाज-सुधार के नाम पर स्थापित की गई हैं।
1. कथावाचक और ब्राह्मणत्व का प्रश्न

कथावाचन कोई नौकरी नहीं, यह धर्म, साधना और ज्ञान का विषय है। परंपरागत रूप से यह भूमिका ब्राह्मणों के हिस्से आई, क्योंकि वे वेदाध्ययन, उपनिषद, पुराणों और दर्शन शास्त्र में पारंगत होते थे। शास्त्रों का ज्ञान, संस्कृत का अभ्यास, और आचारशुद्धि — यह सब उन्हें कथावाचन का स्वाभाविक अधिकारी बनाता था।

लेकिन आधुनिक समाज में जब ज्ञान सभी के लिए सुलभ है, तो यह तर्क दिया जाता है कि “जो भी कथा जानता हो, वह कथावाचक बन सकता है।” ठीक बात है — लोकतंत्र में सबको अधिकार है, और कथा अगर आध्यात्मिक मार्गदर्शन है तो उस मार्ग पर चलने की अनुमति सबको होनी चाहिए।

पर प्रश्न यह उठता है कि जब धर्म और परंपरा में “सिर्फ ब्राह्मण नहीं, कोई भी कर सकता है” कहा जाने लगा है, तो फिर आरक्षण जैसी नीतियों में जाति की दीवारें क्यों खड़ी हैं?
2. आरक्षण और जातीय पहचान की अनिवार्यता

आरक्षण व्यवस्था भारत में सामाजिक विषमता और शोषण के खिलाफ एक सकारात्मक प्रयास के रूप में लाई गई थी। इसका मूल उद्देश्य उन जातियों को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक बराबरी दिलाना था जो सदियों से वंचित रही थीं। यह व्यवस्था अस्थायी थी — संविधान निर्माताओं ने इसे 10 वर्षों के लिए लागू किया था, परंतु यह समय-सीमा बार-बार बढ़ती गई।

आज आरक्षण व्यवस्था राजनीतिक अस्त्र बन चुकी है। जातीय पहचान आरक्षण के लिए अनिवार्य है। SC/ST/OBC जैसे आरक्षण लाभों के लिए व्यक्ति की जाति प्रमाणित होनी चाहिए। बिना जाति का उल्लेख किए कोई भी व्यक्ति इन वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों या नौकरियों का दावा नहीं कर सकता।

यहाँ विरोधाभास सामने आता है —
यदि कोई व्यक्ति कहता है कि “कथावाचक के लिए ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं,” यानी धर्म में जाति का कोई महत्व नहीं, तो क्या यही सोच सामाजिक और राजनीतिक नीति-निर्माण में नहीं अपनाई जानी चाहिए?
3. दोहरे मापदंड: धर्म में लचीलापन, राजनीति में कठोरता

एक ओर कथावाचक की भूमिका को सभी जातियों के लिए खोल दिया गया, क्योंकि उसे "समाज में समता" और "सबको अवसर" की बात बताई गई। लेकिन दूसरी ओर आरक्षण के लिए वही व्यवस्था जाति के आधार पर बाँटी जाती है। क्यों?


यदि जाति आधारित श्रेष्ठता धर्म में नहीं होनी चाहिए, तो जाति आधारित वंचना और विशेषाधिकार राजनीति में क्यों होना चाहिए?


अगर ज्ञान ही मापदंड है, तो कथावाचन में जाति क्यों पूछी जाती है?


और अगर सामाजिक पिछड़ापन ही आधार है, तो आज के समय में जाति के बजाय आर्थिक स्थिति क्यों नहीं देखी जाती?
4. समाज को क्या दिशा दे रहा है यह विरोधाभास?

आज भारत का युवा वर्ग इस विरोधाभास से जूझ रहा है। एक ओर उसे धर्म और परंपरा में ‘जातिवाद नहीं चाहिए’ कहा जाता है, वहीं दूसरी ओर उसे सरकारी योजनाओं, आरक्षण और राजनीति में ‘जाति दिखानी पड़ती है।’

यह एक प्रकार का सुविधाजनक सुधारवाद है — जहाँ हम धर्म में तो उदारता चाहते हैं, पर लाभ में कटौती नहीं।
5. समाधान की दिशा में कुछ विचार:


ज्ञान आधारित प्रणाली अपनाई जाए: चाहे धर्म हो या प्रशासन, ज्ञान, योग्यता और साधना को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।


आरक्षण का पुनर्मूल्यांकन हो: जाति आधारित आरक्षण की जगह, आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर वंचितों को प्राथमिकता दी जाए।


परंपरा और आधुनिकता में संतुलन: कथावाचन जैसी परंपराएं यदि सभी के लिए खुली हों, तो आरक्षण और प्रतिनिधित्व जैसी नीतियाँ भी उसी समता भाव से हों।


एकरूपता का सिद्धांत: यदि जाति का कोई स्थान नहीं है धर्म में, तो वही बात सरकारी योजनाओं में भी लागू की जाए — या फिर दोनों जगह स्पष्टता रखी जाए।

समाज तब ही प्रगति करता है जब वह अपने नियमों और सिद्धांतों में स्पष्ट और ईमानदार हो। यदि कथावाचन के लिए ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं — एक स्वागतयोग्य विचार — तो फिर आरक्षण जैसे लाभ के लिए जाति की अनिवार्यता भी पुनर्विचार योग्य होनी चाहिए।

समता का अर्थ केवल धार्मिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में अवसर देना नहीं, बल्कि आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी समानता स्थापित करना है। धर्म का द्वार सबके लिए खुला है, तो व्यवस्था का दरवाजा भी निष्पक्ष होना चाहिए।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ