भाषाई विवाद और सावरकर जी का हिंदी प्रेम
डॉ राकेश कुमार आर्य
कांग्रेस के चरित्र का यदि अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि इस पार्टी ने प्रारंभ से ही 'हिंदुस्थानी हिंदी' के सामने 'संस्कृतनिष्ठ हिंदी' की सदा उपेक्षा की है। गांधी जी और नेहरू 'हिंदुस्थानी' के समर्थक थे। उन्होंने एक ऐसी काल्पनिक भाषा को हिंदुस्थानी कहकर पुकारा, जिसमें सभी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित कर लिया जाए। नेहरू जी और गांधी जी की मान्यता थी कि भारतवर्ष में भाषा के नाम पर एक नई भाषा का आविष्कार किया जाए। जिसमें देश की सभी भाषाओं के शब्दों को ले लिया जाए। स्पष्ट है कि ऐसी भाषा व्याकरण के लालित्य से कहीं दूर ही होती। जब नेहरू जी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इसी प्रकार की भाषा को लागू करने का प्रयास किया।
दूसरी ओर सावरकर जी थे, जिन्होंने स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए 'संस्कृतनिष्ठ हिंदी' का समर्थन किया।
उनकी मान्यता थी कि हमें राष्ट्र निर्माण के लिए राष्ट्र की आत्मा के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। यदि हमने राष्ट्र निर्माण के नाम पर राष्ट्र की आत्मा को मारने का काम किया तो एक दिन राष्ट्र भी मर जाएगा। हमें राष्ट्रहंता न बनकर राष्ट्र निर्माता बनना चाहिए। यह तभी संभव है जब हम अपनी राष्ट्रभाषा को संस्कृतनिष्ठ बनाएं। सावरकर जी को इस बात का अत्यंत खेद रहा कि हमारे संविधान में उल्लिखित अनुच्छेद 343 में जहां हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही गई है, वहीं उसके नीचे अनेक प्रकार के ' किंतु - परंतु ' लगाकर उनमें ही इस भाषा को राष्ट्रभाषा न बनने देने की सारी योजना प्रस्तुत कर दी गई।
सावरकर जी स्वामी दयानंद जी महाराज की हिंदी को राष्ट्रभाषा के लिए आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते थे । सावरकर समग्र, खंड - 9 के पृष्ठ संख्या 370 पर वह स्पष्ट लिखते हैं कि महर्षि दयानंद द्वारा 'सत्यार्थ प्रकाश' में दिखाई देने वाली हिंदी ही वास्तविक रूप से हिंदी है। ...यह हिंदी भाषा कितनी सरल है ,अनावश्यक विदेशी शब्दों से अलिप्त है और फिर भी बहुत अर्थवान है।"
आज तो दयानंद के मार्ग पर चलने वाले कई लेखक भी ऐसे हो गए हैं जो स्वामी दयानंद जी के हिंदी प्रेम से अलग जाकर ' हिंग्लिश ' को हिंदी के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। उनके लेखन में अनेक शब्द इंग्लिश या उर्दू के आ चुके हैं। जिन्हें वह आधुनिकता के नाम पर प्रयोग करते जा रहे हैं। सावरकर जी की मान्यता थी कि हिंदी का अर्थ ही शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी है।
कांग्रेस ने अपनी वर्धा योजना के अंतर्गत स्वाधीन भारत का पाठ्यक्रम निर्धारित किया था। जिसमें उसने हिंदुस्थानी नामक खिचड़ी भाषा के प्रयोग पर बल दिया था। इसकी ओर संकेत करते हुए सावरकर जी ने कहा है कि " वर्धा की रंधनशाला में पक रही तथाकथित हिंदुस्थानी की खिचड़ी से हिंदी का कुछ भी संबंध नहीं है। वह हिंदुस्थानी भाषिक विघटना का एक अत्याचार ही है तथा उसे निष्ठापूर्वक नामशेष कर देना आवश्यक है। प्रांतिक व प्रादेशिक भाषाओं से अंग्रेजी ,अरबी आदि अनावश्यक विदेशी शब्द निष्ठुरतापूर्वक निकाल देने चाहिए।"
यदि सावरकर जी की इस मान्यता को अपनाकर आगे बढ़ा जाता तो आज देश में जिस प्रकार भाषाई विवाद बार-बार उभरते हैं, वह नहीं उभरते। हमने खिचड़ी भाषा की कल्पना में अपनी वैज्ञानिक भाषा की उपेक्षा की। जिसके परिणामस्वरुप संस्कृत जैसी शुद्ध वैज्ञानिक और मानव जाति की सबसे पहले आविष्कृत की गई भाषा को मरने के लिए अभिशप्त कर दिया।
आज जिस महाराष्ट्र में मराठी के नाम पर हिंदी के साथ अत्याचार किया जा रहा है, उसी महाराष्ट्र में कभी सावरकर जी जैसे राष्ट्रभाषा हिंदी के भक्त जन्मे थे। जिन्होंने हिंदी के समर्थन में उस समय की विभिन्न समाचार पत्र पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख लिखे थे। उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि यदि स्वामी दयानंद जी महाराज अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में गुजराती भाषा के स्थान पर शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी को प्राथमिकता दे सकते हैं तो उन्हें भी राष्ट्रहित में मराठी के स्थान पर शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसलिए उन्होंने लिखा कि "संस्कृत हम लोगों की देवभाषा अथवा पवित्र भाषा है । संस्कृतनिष्ठ हिंदी का अर्थ संस्कृत से उत्पन्न तथा संस्कृत तथा संस्कृत से ही विकसित हुई हिंदी भाषा है। यह भाषा ही हम लोगों की प्रचलित राष्ट्रभाषा है। विश्व की प्राचीन भाषा में संस्कृत सर्वाधिक संपन्न भाषा है तथा हम हिंदुओं के लिए तो उच्चतम भाषा है। हम लोगों के धर्म ग्रंथ , इतिहास, दर्शन तथा वांग्मय की जड़ें इस भाषा में इतनी गहराई तक पहुंच चुकी हैं कि यह भाषा हिंदुस्तान का उत्तमांग है । हम लोगों की प्रांतिक मातृ भाषाओं में अधिकांश की वह जननी है तथा उसने इन भाषाओं को अपना दुग्ध पिलाकर उनका पोषण किया है । आज हिंदुओं में जो भाषाएं प्रचलित हैं वे संस्कृत से ही उत्पन्न हैं अथवा संस्कृत से संबद्ध हैं। उनका विकास व उन्नति संस्कृत भाषा से प्राप्त किये जीवन रस के कारण ही हुआ है। अतः हिंदू युवकों की उच्च शिक्षा में संस्कृत भाषा का भाग चिरकाल तक एवं अनिवार्य रूप से रहना चाहिए।"
सावरकर जी का अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति यह पवित्र भाव आज हमारा राष्ट्रीय भाव बनना चाहिए। उनकी यह भी मान्यता थी कि देश की सभी प्रांतीय भाषाएं अपना-अपना अस्तित्व बनाए रख सकती हैं। शर्त केवल एक ही होगी कि वह राष्ट्रभाषा के प्रति कभी अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग नहीं करेंगी। परंतु आज जो कुछ भी भाषाओं के नाम पर हो रहा है, वह अत्यंत खेदजनक है। यह तो और भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वयं सावरकर जी की पवित्र भूमि महाराष्ट्र से ही हिंदी विरोध के स्वर उभरते हुए दिखाई दे रहे हैं। यद्यपि यह भी निश्चित है कि हिंदी मराठी की विरोधी कभी नहीं हो सकती। मराठी की बड़ी बहन होने के कारण हिंदी उसकी रक्षिका तो हो सकती है परन्तु भक्षिका नहीं हो सकती। इसी प्रकार संस्कृत भी भारत की किसी भी भाषा की भक्षिका नहीं हो सकती। जिस मां ने अपने बच्चों को जन्म दिया हो, वह उनकी हत्या कभी नहीं कर सकती। इसी प्रकार जिस बड़ी बहन ने छोटे भाई बहनों को गोद खिलाया हो , वह भी उनका अंत नहीं देख सकती। दुर्भाग्यवश हमने देश के लिए सोचना बंद कर दिया है। हम निहित स्वार्थों के लिए सोच रहे हैं। इसका कारण केवल एक है कि 15 अगस्त 1947 को जब देश स्वाधीन हुआ तो देश की पहली सरकार ने स्वार्थों को प्राथमिकता देते हुए अपनी नीतियों का निर्धारण किया। उन्होंने तुष्टीकरण करते हुए उर्दू को भी एक भाषा माना और उसे लगभग सर्वोच्चता प्रदान करने में संकोच नहीं किया। जिन लोगों को कांग्रेस ने सपने दिखाये अथवा जिनका तुष्टीकरण किया, आज वही देश की राष्ट्रभाषा को अपमानित करने के लिए प्रांतीय भाषाओं को अपनी ही बड़ी बहन के सामने खड़े करने का दुस्साहस कर रहे हैं। इस चाल, चलन और प्रचलन को बंद करना होगा।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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