धधकत ज्वाला बानी आग के
कहवाॅं जाईं दुनिया से भाग के ,
का करीं हम कतना जाग के ।
ऑंख खोलके जब देखत बानी ,
फने लउकत बा खाली नागके ।।
कोयल के कूक मिलत नईखे ,
खाली काॅंव मिलत बा काग के ।
मीठा स्वर अब कहाॅं भुलाईल ,
जहरीले मिलत बाटे राग के ।।
संख्या बढ़ल बड़ा बा बंदर के ,
उजाड़ के धईले बा ई बाग के ।
दाग अबहीं कहीं लउकत नईखे ,
परछाईं लउकत बाटे दाग के ।।
मईल काटे के कहीं शक्ति नईखे ,
खाली पानी दिखत बा झाग के ।
सावन में चललन फगुआ गावे ,
जब दिन नईखे कवनों फाग के।।
चाहे दुश्मन जवन खेला करस ,
शान ना मिटी भारत के पाग के ।
चाहे तू फव्वारा छोड़s पानी के ,
धधकत तेज ज्वाला बानी आगके ।।
जरा के हम भस्म सब कर देहब ,
लउकत बा जवन फन ई नाग के ।
कउआ नाग के हम रहे ना देहब ,
रह ना जाई कतहीं कर्कश रागके ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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