“नेता आजीवन, गाड़ियाँ सीमितकालीन: नीति या विडंबना?”
डॉ राकेश दत्त मिश्रवर्तमान भारत में जिस प्रकार की नीतियाँ बन रही हैं, वे कभी-कभी नागरिकों के मन में गंभीर प्रश्न उठाती हैं—क्या इन निर्णयों में तर्क की प्रधानता है या केवल सत्ता की सुविधा?
इन दिनों एक ऐसा निर्णय चर्चा में है, जो एक ओर तो ‘पर्यावरण संरक्षण’ के नाम पर प्रशंसनीय प्रतीत होता है, किंतु दूसरी ओर आम नागरिकों की कठिनाइयों को अनदेखा करता है। यह निर्णय है—15 वर्ष पुरानी गाड़ियों को रिटायर कर देना, भले ही वे बिल्कुल दुरुस्त क्यों न हों। दिल्ली-एनसीआर जैसे क्षेत्रों में डीजल गाड़ियों की उम्र तो मात्र 10 वर्ष निर्धारित कर दी गई है।
लेकिन जब हम राजनीति की ओर दृष्टि डालते हैं, तो वहाँ दृश्य बिल्कुल भिन्न है। हमारे जनप्रतिनिधि—सांसद, विधायक, मंत्री—चाहे कितने भी वृद्ध हो जाएँ, चाहे उनके विचार कितने भी पुराने पड़ जाएँ, वे न केवल सत्ता में बने रहते हैं, बल्कि कई बार पीढ़ियों तक कुर्सियों से चिपके रहते हैं। इस विरोधाभास ने आज एक व्यंग्यात्मक प्रश्न को जन्म दिया है—क्या यह उचित है कि एक साधारण कार की उम्र तय कर दी जाए और एक नेता की नहीं?
गाड़ी की उम्र तय, मगर नेता के लिए कोई समय-सीमा नहीं?
यदि कोई वाहन 15 वर्षों के पश्चात भी प्रदूषण मानकों पर खरा उतर रहा है, उसका फिटनेस प्रमाणपत्र अद्यतन है, और वह चालकों के लिए सुरक्षित है—तो उसे सड़क से हटाना क्या नीतिगत विवेक है या केवल औद्योगिक प्रोत्साहन का एक माध्यम?
वहीं दूसरी ओर, राजनीति में कोई "फिटनेस टेस्ट" नहीं होता। कोई नेता चाहे 80 वर्ष के हों या 90 के, सत्ता का मार्ग उनके लिए सदा प्रशस्त रहता है। यहाँ तक कि कोई न्यूनतम कार्य-प्रदर्शन मूल्यांकन भी नहीं होता। क्या जनसेवा का उत्तरदायित्व अनंतकाल तक निभाया जा सकता है, वह भी बिना किसी सामयिक मूल्यांकन के?
नीतियों की यह विषमता क्या कहती है?
सरकार का यह तर्क कि पुरानी गाड़ियाँ अधिक प्रदूषण फैलाती हैं, कुछ हद तक स्वीकार्य हो सकता है। किंतु क्या यह नीति इतनी कठोर होनी चाहिए कि मध्यमवर्गीय नागरिक, जो वर्षों की बचत से वाहन खरीदता है, मात्र 10-15 वर्षों में उसे कबाड़ में बेचने को विवश हो? क्या यह एक परोक्ष आर्थिक शोषण नहीं है?
यदि हम जनहित की बात करें तो क्या सार्वजनिक पदों पर बैठे प्रतिनिधियों की भी कोई कार्यशीलता सीमा निर्धारित नहीं होनी चाहिए? कोई "रेगुलर फिटनेस टेस्ट", कोई मानसिक दक्षता परीक्षण या "नैतिक प्रदूषण नियंत्रण"? क्या पर्यावरणीय प्रदूषण से भी बड़ा संकट "सत्ता प्रदूषण" नहीं है?
क्या होना चाहिए?
यह आवश्यक है कि नीतियाँ तार्किक, समन्वित और समान हों। जैसे गाड़ियों के लिए 'फिटनेस आधारित' मूल्यांकन आवश्यक है, वैसे ही जनप्रतिनिधियों के लिए भी 'जन-विश्वास आधारित' कार्यक्षमता मूल्यांकन हो।
यदि एक सार्वजनिक वाहन समय पर फिटनेस प्रमाणपत्र नहीं लाता तो वह सड़क पर नहीं उतर सकता। ठीक वैसे ही, यदि कोई जनप्रतिनिधि जनता के विश्वास और प्रगतिशील विचारों के मानकों पर खरा नहीं उतरता, तो उसे भी सत्ता से 'विश्राम' दिया जाना चाहिए।
निष्कर्ष: नीति में तर्क और नैतिक संतुलन हो
समय आ गया है कि हम अपने सामाजिक ढांचे में व्याप्त इन विरोधाभासों पर गंभीरता से विचार करें।
एक वाहन और एक जनप्रतिनिधि—दोनों ही सार्वजनिक संसाधन हैं। दोनों पर सार्वजनिक हित और जिम्मेदारी का बोझ होता है।
फिर नियम भी समान क्यों नहीं?
यदि गाड़ी को 15 वर्षों में 'रिटायर' किया जा सकता है, तो सत्ता को क्यों नहीं?
कुर्सियाँ भी जंग खाती हैं—केवल मशीनें ही नहीं।
"विचारों में नवीनता ही विकास का पहला चरण है।
और नीति में न्याय, ही लोकतंत्र की आत्मा है।"
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com