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शरीर के अंगों की महापंचायत: जब दिमाग ने ली चुटकी

शरीर के अंगों की महापंचायत: जब दिमाग ने ली चुटकी

सत्येन्द्र कुमार पाठक
एक समय की बात है, शरीर के सभी अंगों ने एक आपातकालीन सभा बुलाई। एजेंडा? मस्तक (दिमाग) को सबक सिखाना! पैरों ने मेज थपथपाते हुए कहा, "हम क्यों चलें जब ये हुकुम चलाता है?" हाथों ने अपनी मुट्ठियां भींचते हुए कहा, "सुरक्षा देने का जिम्मा हमारा, और नाम होता है इसका!" नाक ने तिरछी निगाहों से देखा, "सुगंध-दुर्गंध सब हमारे जिम्मे, पर फैसला ये लेता है!" कान और आँखें भी पीछे नहीं रहे, "सुनना-देखना हमारा काम, पर सोचने की जहमत ये नहीं उठाता!" और पेट? पेट ने तो डकार लेते हुए कहा, "पाचन की सारी मेहनत हमारी, और आदेश देने में ये आगे!"
पूरे हॉल में मस्तक के खिलाफ नारे गूँज रहे थे। हर अंग अपनी-अपनी बहादुरी के किस्से सुना रहा था और मस्तक को कोस रहा था। जब ये सारी बातें मस्तक तक पहुँचीं, तो उसने एक गहरी साँस ली और चुप हो गया। बिल्कुल शांत! जैसे किसी ने 'म्यूट' बटन दबा दिया हो।अब क्या था! जो अंग अभी तक एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मस्तक को गालियाँ दे रहे थे, वे एक-दूसरे से भिड़ने लगे। पैर कहने लगे, "तुम ठीक से चले नहीं, इसलिए हम गिर गए!" हाथ चिल्लाए, "तुमने सही से पकड़ा नहीं, इसलिए चीजें फिसल गईं!" नाक ने कहा, "तुम्हारी वजह से ही हम गलत गंध पहचान पाए!" कान ने कहा, "तुमने सुना नहीं, इसलिए हमने गलत सुना!" और पेट? पेट ने तो सीधा आरोप लगाया, "तुम्हारी बदहजमी की वजह से ही मेरा काम बढ़ गया!" पंचायत का मंच अखाड़ा बन गया। सब एक-दूसरे को खरी-खोटी सुनाने लगे। मस्तक के कार्यों को भला-बुरा कहा जा रहा था, लेकिन हकीकत में वे एक-दूसरे को ही नीचा दिखा रहे थे। प्रताड़ना और शिकायतें मस्तक पर बरस रही थीं, पर मस्तक मौन था, एक शांत तूफान की तरह।
धीरे-धीरे, जैसे-जैसे वे एक-दूसरे से लड़ते-लड़ते थकने लगे, उन्हें एक अजीब-सी शांति महसूस हुई। और फिर, अचानक, उनके अंदर एक रोशनी जली। एक डरावना अहसास! "अरे! अगर मस्तक ही काम नहीं करेगा तो हम सब क्या करेंगे?" पैर बिना दिशा के भटकने लगे, हाथ बेजान से लटक गए, नाक ने अपनी सूंघने की शक्ति खो दी, कान बहरे हो गए और आँखें अंधी। पेट का तो बुरा हाल था, कुछ भी पच नहीं रहा था।घबराहट में उन्होंने मस्तक की ओर देखा। "हमें माफ कर दो, मस्तक जी!" उन्होंने एक स्वर में गुहार लगाई। "हम गलत थे! आपके बिना हम कुछ भी नहीं!"मस्तक ने धीरे-से अपनी आँखें खोलीं। एक हल्की-सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी। उसने शांति से उनकी बातें सुनीं और फिर कहा, "देखो, दोस्तों! इस दुनिया में हर किसी का अपना काम होता है। जो काम तुम्हें मिला है, उसे ईमानदारी से करो। पैर को चलना चाहिए, हाथ को सुरक्षा देनी चाहिए, नाक को सूंघना चाहिए, कान को सुनना चाहिए, आँख को देखना चाहिए, और पेट को पचाना चाहिए। जब हर कोई अपना काम ठीक से करेगा, तभी हम सब ठीक से रह पाएंगे। अपने-अपने कार्यों में बढ़ो और विकास करो। बाकी सब मुझ पर छोड़ दो!"और इस तरह, शरीर के सभी अंगों ने मस्तक की बात मानी और फिर से अपना-अपना काम करने लगे। शरीर एक बार फिर संतुलित हो गया, और मस्तक ने अपनी चुटकी से यह साबित कर दिया कि असली ताकत एकता और सही दिशा में काम करने में है, न कि एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में है।
जिस तरह शरीर के अंगों की महापंचायत में मस्तक को किनारे करने का निर्णय लिया गया था, ठीक उसी तरह आज की भारतीय राजनीति में भी कुछ ऐसा ही दृश्य देखने को मिलता है। यह व्यंग्यात्मक कथा हमें वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की कई विसंगतियों पर विचार करने पर मजबूर करती है। शरीर के सभी अंग मस्तक को सहयोग न देने का संकल्प लेते हैं। आज की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। 'मस्तिष्क' को हम यहाँ दूरदृष्टि, विशेषज्ञता, तार्किक सोच और दीर्घकालिक योजना के प्रतीक के रूप में देख सकते हैं। अक्सर, तात्कालिक लाभ और लोकप्रियता हासिल करने के लिए ऐसे निर्णयों को दरकिनार कर दिया जाता है, जो वास्तव में देश के लिए हितकारी होते हैं। विशेषज्ञों की सलाह को अनसुना किया जाता है, और भावनात्मक अपीलों पर आधारित फैसले हावी हो जाते हैं। परिणाम वही होता है जो कहानी में हुआ – असंतुलन और अव्यवस्था। जब मस्तक मौन हो जाता है, तो कहानी में शरीर के अन्य अंग एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगते हैं। आज की राजनीति इसका जीता-जागता उदाहरण है। किसी भी समस्या के लिए दूसरे पर दोष मढ़ना, अपने कार्यों का श्रेय खुद लेना और विपक्ष को नीचा दिखाना आम बात हो गई है। जिस प्रकार पैर, हाथ, पेट, कान और आँखें एक-दूसरे को खरी-खोटी सुनाने लगे थे, उसी प्रकार राजनीतिक दल एक-दूसरे पर उंगली उठाते हैं, बिना यह समझे कि इस आपसी कलह से पूरे 'शरीर' (राष्ट्र) को नुकसान पहुँच रहा है। विकास के एजेंडे से हटकर, व्यक्तिगत हमले और कुटिल चालें अधिक प्रमुख हो जाती हैं।
मस्तक मौन होकर प्रताड़ना और शिकायतें सहता है। यह स्थिति कहीं न कहीं जनता की सहनशीलता और कभी-कभी उदासीनता को दर्शाती है। जनता, जो 'मस्तक' (विचारशीलता और सही निर्णय) का प्रतिनिधित्व करती है, अक्सर राजनीतिक दलों की खींचतान और अनर्गल प्रलाप को चुपचाप सहती रहती है। वह आरोप-प्रत्यारोप और खोखले वादों को सुनती रहती है, लेकिन जब तक स्थिति अत्यधिक गंभीर नहीं हो जाती, तब तक मुखर होकर प्रतिक्रिया नहीं देती। हालांकि, कहानी के अंत में मस्तक की प्रेरणा और जनता की जागरूकता का संदेश भी निहित है ।
कहानी का महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है, जब विरोधियों को अहसास होता है कि मस्तक को मनाने से ही वे सभी सुरक्षित रह सकते हैं। यह आज की राजनीति के लिए एक गहरा संदेश है। जब तक राजनीतिक दल, सत्ता पक्ष और विपक्ष, यह नहीं समझेंगे कि राष्ट्रहित सर्वोपरि है और एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करना ही अंतिम समाधान है, तब तक देश प्रगति नहीं कर सकता। मस्तक द्वारा दिया गया संदेश – "जिसे जो कार्य करने को मिला है वही कार्य करे तभी ठीक से रह सकते है" – प्रत्येक राजनीतिक दल और नेता के लिए है। अपनी जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाना, अपने कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना और अनावश्यक विवादों से बचना ही देश को सही रास्ते पर ले जा सकता है।
शरीर के अंगों की महापंचायत की यह व्यंग्यात्मक कथा आज की भारतीय राजनीति को एक दर्पण दिखाती है। यह हमें सिखाती है कि केवल दूरदृष्टि, सहयोग, और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा ही एक मजबूत और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर सकती है। जिस प्रकार मस्तक के मार्गदर्शन के बिना शरीर का चलना असंभव है, उसी प्रकार दूरदर्शी और सहयोगी राजनीति के बिना किसी भी देश का विकास अधूरा रहेगा। आज की राजनीति को इस महापंचायत से सीखना होगा कि आपसी संघर्ष और श्रेय की लड़ाई से बेहतर है कि सब मिलकर 'शरीर' (देश) के विकास और कल्याण के लिए काम करें।


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