विस्तृत राजनीति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष: जब सिद्धांत बने चुनावी '
सत्येन्द्र कुमार पाठक
आज की भारतीय राजनीति एक ऐसी रंगशाला बन गई है जहाँ हमारे प्राचीन पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष – का मंचन होता है, लेकिन एक ऐसे व्यंगात्मक अंदाज़ में कि आचार्य चाणक्य भी अपनी आँखें मलते रह जाते। जहाँ कभी ये जीवन के मूलभूत सिद्धांत थे, वहीं अब ये चुनावी रणनीतियों, सियासी दाँव-पेच और वोट बैंक साधने के अस्त्र बन गए हैं। आइए, इनकी विस्तृत व्यंगात्मक स्थिति पर एक नज़र डालें। धर्म: 'आस्था' का हथियार और वोटों का 'टेंडर' - सनातन अवधारणा: धर्म यानी नैतिक कर्तव्य, सत्यनिष्ठा, न्याय और समाज के प्रति दायित्व। यह व्यक्ति को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता था, चाहे वो राजा हो या प्रजा। आज की राजनीति में: धर्म अब आस्था कम और पहचान की राजनीति का सबसे धारदार हथियार ज़्यादा बन गया है। अब 'धर्म' का मतलब अपने संसदीय क्षेत्र में ईमानदारी से काम करना नहीं, बल्कि किसी विशेष समुदाय को रिझाना या दूसरे समुदाय को 'सबक' सिखाना हो गया है।धर्मस्थल और राजनीति: मंदिर और मस्जिद अब भक्ति के केंद्र कम और चुनावी रैलियों के लॉन्च पैड ज़्यादा बन गए हैं। 'दर्शन' के नाम पर नेताओं का जमावड़ा लगता है, मानो भगवान को नहीं, टीवी कैमरों को प्रसाद चढ़ाया जा रहा हो। 'धार्मिक यात्राएं' अब आध्यात्मिक शुद्धि के लिए नहीं, बल्कि विभिन्न वर्गों को एकजुट करने की 'बस यात्राएं' बन गई हैं।
धार्मिक नारे और प्रतीक: 'जय श्री राम' या 'अल्लाह-हू-अकबर' जैसे पवित्र उद्घोष अब भक्ति से ज़्यादा सत्ता-संघर्ष के नारों में तब्दील हो गए हैं। नेता गणवेश पहनकर मंचों पर दिखते हैं, मानो आध्यात्मिक गुरु हों, जबकि मंच के पीछे टिकट बंटवारे और दलबदल की 'नीतिशास्त्र' लिखी जा रही होती है।धार्मिक सहिष्णुता बनाम तुष्टीकरण: धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा इतनी लचीली हो गई है कि वह सुविधा अनुसार तुष्टीकरण में बदल जाती है। एक धर्म के त्योहार पर छुट्टी घोषित कर दी जाती है, तो दूसरे धर्म के कार्यक्रम में विशेष 'सहायता' का ऐलान होता है। 'सर्वधर्म समभाव' की बात केवल भाषणों में होती है, जबकि ज़मीनी हकीकत में हर कोई अपने-अपने 'धर्म-वोट-बैंक' की बाड़बंदी में लगा रहता है।
अर्थ: जनता का 'धन' और नेताओं की 'निधि' - सनातन अवधारणा: अर्थ यानी धनोपार्जन, समृद्धि और संसाधनों का कुशल प्रबंधन, जिससे समाज का कल्याण हो सके। यह व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर सामूहिक भलाई पर केंद्रित था।आज की राजनीति में: 'अर्थ' शब्द अब धन के सृजन से ज़्यादा उसके बंटवारे (या हड़पने) से जुड़ गया है। यह अब देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का साधन कम, और नेताओं व उनके करीबियों की 'निजी अर्थव्यवस्था' को मजबूत करने का ज़रिया ज़्यादा है।
घोटाले और कमीशन: 'अर्थ' अब घोटालों, कमीशनखोरी और बेनामी संपत्तियों का पर्याय है। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स इसलिए पास नहीं होते कि उनकी ज़रूरत है, बल्कि इसलिए होते हैं ताकि उनमें 'कट' का बड़ा हिस्सा मिल सके। सड़क के गड्ढे नहीं भरे जाते क्योंकि उनमें 'अर्थ' निकालने की गुंजाइश कम होती है, जबकि नई एक्सप्रेस-वे योजनाओं में 'अर्थ' का बड़ा स्कोप दिखता है।
चुनावी चंदा और बांड: 'अर्थ' का सबसे बड़ा खेल चुनावी चंदे में दिखता है। इलेक्टोरल बांड्स एक ऐसी 'पारदर्शी' व्यवस्था है जहाँ कौन किसको कितना 'अर्थ' दे रहा है, ये केवल दान देने वाला और प्राप्त करने वाला ही जानते हैं (और शायद कुछ सरकारी एजेंसियां)। इस 'अर्थ' का उपयोग चुनाव जीतने और फिर सत्ता में आने के बाद और 'अर्थ' बनाने में किया जाता है। जनकल्याण की योजनाएं: 'अर्थ' का एक और रूप जनकल्याण की योजनाओं में दिखता है, जो अक्सर चुनावी लॉलीपॉप होती हैं। गरीबों को मुफ्त बिजली, पानी, या राशन देने की बात होती है, पर इस 'अर्थ' का एक बड़ा हिस्सा प्रचार पर खर्च होता है और शेष कुछ बिचौलियों की जेब में चला जाता है। असली लक्ष्य लोगों को आत्मनिर्भर बनाना कम, और वोट के लिए 'निर्भर' बनाना ज़्यादा होता है। काम: कुर्सी का 'मोह' और शक्ति का 'दुरुपयोग' - सनातन अवधारणा: काम यानी न्यायसंगत इच्छाओं की पूर्ति, प्रेम, कला और जीवन का आनंद। यह व्यक्तिगत सुख की साधना थी, जो धर्म के दायरे में रहकर समाज को भी समृद्ध करती थी।
आज की राजनीति में: 'काम' अब व्यक्तिगत आनंद या कला-संस्कृति से ज़्यादा सत्ता की अदम्य इच्छा और पद के मोह का प्रतीक बन गया है। यह वह शक्ति है जिसके लिए नैतिकता और सिद्धांतों को ताक पर रख दिया जाता है।
दलबदल और गठबंधन: '- काम' अब दल-बदल के खेल में सबसे ज़्यादा दिखता है। सुबह जिस पार्टी को 'भ्रष्ट' कहा जाता है, शाम को उसी के साथ सरकार बनाने का 'काम' कर लिया जाता है। 'आइडियोलॉजी' एक पुरानी किताब का नाम है, असली 'काम' तो कुर्सी हथियाने में होता है।
सत्ता का केंद्रीकरण:- 'काम' अब शक्ति के केंद्रीकरण की अंधी दौड़ है। हर विभाग, हर निर्णय पर अपना नियंत्रण जमाना, ताकि अपने मनमर्जी के 'काम' किए जा सकें। विरोधियों को कुचलने का 'काम' भी इसी 'काम' की श्रेणी में आता है, चाहे उसके लिए कोई भी हथकंडा अपनाना पड़े।
वादों का जुमला: चुनावी 'काम' का सबसे बड़ा हिस्सा झूठे वादे गढ़ना है। बेरोज़गारों को नौकरी, किसानों को कर्ज़माफी, हर घर में पानी – ये सब वो 'काम' हैं जो कागजों पर तो होते हैं, पर धरातल पर कभी नहीं दिखते। इनका असली 'काम' केवल जनता को अगले 5 साल तक सपनों में उलझाए रखना होता है।
मोक्ष: राजनीति से 'संन्यास' या सुरक्षित 'सेवानिवृत्ति'? - सनातन अवधारणा: मोक्ष यानी जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, परम शांति और सांसारिक मोहमाया का त्याग। यह जीवन का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य था।
आज की राजनीति में: 'मोक्ष' का अर्थ आध्यात्मिक मुक्ति से हटकर राजनीतिक करियर की 'सुरक्षित लैंडिंग' बन गया है। यह सक्रिय राजनीति से सम्मानजनक विदाई का मार्ग है, जहाँ पद और प्रतिष्ठा दोनों बरकरार रहें।
राज्यपाल या आयोग का पद: राजनीति से 'मोक्ष' प्राप्त करने का सबसे सामान्य तरीका किसी राज्य का राज्यपाल बन जाना, या किसी बड़े सरकारी आयोग का अध्यक्ष बन जाना है। यहाँ बिना ज़्यादा काम किए, सरकारी आवास, गाड़ी, और भारी-भरकम पेंशन के साथ 'देश सेवा' की अंतिम पारी खेली जा सकती है।
राज्यसभा का मार्ग - : लोकसभा चुनाव हारने के बाद, कई नेता राज्यसभा के माध्यम से 'मोक्ष' प्राप्त करते हैं। यहाँ सीधे जनता का सामना नहीं करना पड़ता, और दिल्ली की सुविधाओं का भी आनंद लिया जा सकता है। यह एक प्रकार का 'वीआईपी मोक्ष' है।वंशवाद का मोक्ष - : कुछ परिवारों के लिए 'मोक्ष' का अर्थ अपने पद को अगली पीढ़ी को सौंप देना है। यहाँ व्यक्ति को खुद भले ही सक्रिय राजनीति छोड़नी पड़े, लेकिन उसके 'वंश' का 'मोक्ष' सुनिश्चित हो जाता है, क्योंकि सत्ता परिवार से बाहर नहीं जाती। आज की भारतीय राजनीति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अब जीवन के आदर्श सिद्धांत नहीं रहे, बल्कि सत्ता पाने, उसे बनाए रखने और उससे लाभ कमाने के लिए गढ़े गए अभूतपूर्व 'जुमले' बन गए हैं। और हम जनता, इन सब तमाशों को देखते हुए बस यही सोचते हैं कि क्या कभी असली 'मोक्ष' इस राजनीति से भी मिलेगा!
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