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बिहार को लेकर 'सुप्रीम' निर्णय

बिहार को लेकर 'सुप्रीम' निर्णय

डॉ राकेश कुमार आर्य
बिहार विधानसभा का चुनाव के दृष्टिगत सभी के भीतर इस बात को लेकर कौतूहल है कि वहां सरकार का नेतृत्व कर रहे नीतीश कुमार अगली बार फिर सत्ता में लौटेंगे या नहीं ?दूसरे, यहां मोदी का जादू चलता है या नहीं? तीसरे, लालू की लालटेन यहां जलेगी या फिर राहुल गांधी कुछ विशेष कर पाएंगे ? ये सारी बातें भी लोगों के लिए कौतूहल का कारण बन रही हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव की तिथि ज्यों-ज्यों निकट आती जा रही है, त्यों-त्यों राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिए तरह-तरह से हाथ पांव मार रहे हैं। सत्ता में आना प्रत्येक राजनीतिक दल का अधिकार है, परन्तु उसके लिए अनिवार्य कसौटी होती है-लोकप्रियता। लोकप्रियता का अर्थ है- जनता का साथ मिलना। लोकतंत्र में जनता के मत का सम्मान करना सबसे अनिवार्य होता है, परंतु भारत के राजनीतिक दल लोकतंत्र के इस अनिवार्य मूल्य की 'हत्या' करके भी सत्ता हथियाने का प्रयास करते रहे हैं । इसके लिए वे लोक और तन्त्र दोनों की दृष्टि में धूल झोंककर भी सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं। इसमें सबसे बड़ी बात यह होती है कि अधिकांश राजनीतिक दल मतदाता सूची को मनमाने ढंग से संशोधित और परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं। यदि बिहार चुनाव की बात करें तो यहां पर भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं । पता चला है कि 7 लाख ऐसे फर्जी मतदाता मतदाता सूचियों में सम्मिलित कर लिए गए हैं, जिनका एक से अधिक स्थानों पर पहले से ही वोट बन चुका है। इसके अतिरिक्त 20 लाख मतदाता ऐसे हैं, जिनकी पूर्व में ही मृत्यु हो चुकी है। जबकि 28 लाख मतदाता ऐसे हैं जो अपने मूल स्थान से अन्यत्र पलायन कर चुके हैं । कुल मिलाकर लगभग 62 लाख फर्जी मतदाता अभी तक बिहार की विधानसभा के चुनावों की मतदाता सूची में फर्जी रूप में पकड़े जा चुके हैं।
लोकतंत्र की हत्या करने के इस बड़े खेल को कौन कर रहा था? यदि यह प्रश्न किया जाए तो पता चलता है कि जो राजनीतिक दल आज भारत के चुनाव आयोग को इसलिए गाली दे रहे हैं कि उसने मतदाता सूची में दर्ज किए गए इन नामों को यथावत क्यों नहीं रहने दिया ? वही वे अपराधी हैं जो 'लोकतंत्र की हत्या' के इस खेल में सम्मिलित हैं। चुनाव आयोग ने डंडा लेकर ऐसे राजनीतिक दलों की पीठ को तोड़ना आरंभ किया तो उन्होंने चीखना चिल्लाना आरंभ कर दिया कि भारत में चुनाव आयोग मनमानी कर रहा है। अपनी तानाशाही चला रहा है और पूरी तरह गुंडागर्दी पर उतर आया है । देश के जनमानस को इस प्रकार के शोर शराबे को गंभीरता से लेना चाहिए और समझना चाहिए कि लोकतंत्र की हत्या में सम्मिलित राजनीतिक दल इस प्रकार का शोर क्यों मचा रहे हैं ? इस प्रकार के शोर शराबे में सम्मिलित राजनीतिक दल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी पहुंच गए हैं। वहां पहुंचने पर इन राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय को बिहार चुनाव आयोग के इस प्रकार के मनमाने आचरण पर रोक लगाने के लिए कहा है । परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार में मतदाता सूची के मसौदा (ड्राफ्ट वोटर लिस्ट) के प्रकाशन पर कोई रोक लगाने से इनकार कर दिया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से चुनाव आयोग को कहा गया है कि वो इस प्रक्रिया में आधार कार्ड और मतदाता फोटो पहचान पत्र अर्थात वोटर आईडी कार्ड (EPIC) को भी सम्मिलित करे। चुनावी प्रक्रिया को पूर्णतया पारदर्शी बनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को यह भी निर्देश दिया है कि यदि कहीं नाम काटे जा रहे हैं तो यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो नाम मतदाता सूची में सम्मिलित कर लेने चाहिए थे, परंतु नहीं किये जा सके हैं, उन्हें मतदाता सूची में जोड़ भी लिया जाए।
वास्तव में भारतीय लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि यहां पर प्रधान से लेकर संसद तक के सबसे बड़े चुनाव तक में मतदाता सूचियों में बड़ी गड़बड़ी होती है। जिले स्तर पर होने वाले जिला पंचायत के चुनाव में तो जिला पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव पूरी तरह गुंडागर्दी पर आधारित होकर रह गया है। सारा देश जानता है कि जिला पंचायत के अध्यक्ष के चुनाव में किस प्रकार जिला पंचायत सदस्यों को खरीदने का खुल्लम-खुल्ला काम होता है ? इसी प्रकार ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में भी गुंडागर्दी होती है। यदि हम शहरी रेजिडेंशियल वेलफेयर एसोसिएशन के चुनावों को देखें तो वहां पर भी लोग विकास कार्यों पर कम ध्यान देते हैं, राजनीतिक उठापटक में अधिक लगे रहते हैं। अपनी सोसाइटी के अध्यक्ष पद को कैसे हथियाया जाए ? - इस पर सभी का ध्यान केंद्रित रहता है। इस सबके उपरांत भी लोकतंत्र के हत्यारों को 'बदमाशी' करने से रोका नहीं जाता।
हम इस लेख के माध्यम से माननीय सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि अकेले बिहार की मतदाता सूचियों के ही निरीक्षण पुनरीक्षण का कार्य किया जाना पर्याप्त नहीं है, पूरे देश की यही बीमारी है। लोकतंत्र के नाम पर यहां पर गली मोहल्लों तक में चुनाव होते हैं , परंतु धांधली सभी में होती है। सभ्य और शालीन लोगों का चुनाव के प्रति ध्यान और आकर्षण भंग हो चुका है। वे इसे अपराधियों के लिए छोड़ चुके हैं। इसलिए भारतवर्ष में चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र निकाय के साथ-साथ मजबूत और आत्म स्वावलंबी निकाय बनाया जाना भी आवश्यक है। इसके पास अपना सुरक्षा बल और अपने अधिकारी जिले स्तर तक होने चाहिए। अभी तक हो यह रहा है कि किसी भी चुनाव के समय जिलाधिकारी, एसडीएम , तहसीलदार और उनका समस्त विभाग और उसके कर्मचारी चुनाव आयोग के अधीन कार्य करना आरंभ कर देते हैं। परंतु अप्रत्यक्ष रूप से उन पर अपनी सरकार का ही 'अंकुश' होता है। जिससे सरकार को प्रशासनिक तंत्र का दुरुपयोग करने का अवसर उपलब्ध हो जाता है। इसलिए प्रत्येक चुनाव में धांधली होना स्वाभाविक होता है। इसी के चलते चुनाव आयोग पर हर चुनाव में धांधली के आरोप लगाते हैं। यदि सत्ता पक्ष पूर्ण पारदर्शिता अपनाना चाहता है तो उसे अपनी ओर से यह पहल करनी चाहिए कि वह चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र निकाय के साथ-साथ उसका अपना सुरक्षा बल स्थाई रूप से उपलब्ध कराएगा ?
सर्वोच्च न्यायालय को देखना चाहिए कि लोकतंत्र के हत्यारे कहां-कहां हैं और कैसे-कैसे ढंग से लोकतंत्र की हत्या की जा रही है? बिहार के संदर्भ में न्यायालय ने जो निर्णय लिया है, उसके लिए बधाई।



(लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
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