दिक्कत क्यों देखने वालों को
(दम्भ-दिखावे का वायरस)
‘स्व’ तन्त्र ‘लोक’ तान्त्रिक व्यवस्था में एक ‘डायलॉग’ बड़ा ‘वायरल’ हो गया है—तुम्हें क्यों दिक्कत...यानी मैं जो कर रहा हूँ, उससे तुम्हें क्या परेशानी...यानी मेरी स्वतन्त्रता में तुम बाधक क्यों?
कड़ाके की सर्दी में भी खासकर शादी-समारोह में या बाजार-हाट-सड़कों पर भी बिलकुल सहज-सामान्य भाव से सौन्दर्य-प्रदर्शन करती, लहराते ज़ुल्फें वाली या भुंडमुंड अर्द्धनग्न आधुनिकाओं को टोकने की हिम्मत आप नहीं जुटा सकते।
और इसी भाँति बयालिश डिग्री टेम्परेचर में भी दूल्हेराजा को भारी-भरकम शेरवानी या थ्री पीस शूट न पहनने की सलाह आप कतई नहीं दे सकते।
विवाह-मण्डप हो या पूजा-पण्डाल, डी.जे. की कलेजा कँपाने वाली जानलेवा ध्वनि पर ऊँगली नहीं उठा सकते।
एनरॉयड फोन के साथ फ्री में मिले ईयरफोन के रहते हुए भी हाई वॉल्यूम पर ‘वैशाखनन्दनी’ धुन वाले रॉक-पॉप सुनने वालों को टोक नहीं सकते।
एक सौ बीस डिग्री पर गर्दन मोड़े मोबाइल दबाये एकदम से एन.एच.स्पीड में फर्राटे से बाईक उड़ाते, बातें करते या एक हाथ से हैंडिल छोड़कर फोन करने वाले को उँगुलियों से निर्देश देते हुए रंगरुटों को आप स्पीट लिमिट का सीख नहीं दे सकते।
सिगरेट का जहरीला धुआँ उगलते ट्रेन-बस के सहयात्री को मना नहीं सकते।
भोलेनाथ के नाम पर चिलम फूँकते गँजेड़ियों को धर्म-कर्म की परिभाषा और विधि नहीं समझा सकते। क्यों कि अज्ञानताधर्म का अफीम वो पहले से ही चाटे बैठा है।
मुँह में तिरंगा-गुटका-पानपराग भरे या होठों तले खैनी-तम्बाकू दबाये रामकथा कहते या जप-मालिका में हाथ घुसेड़े, होठ पटपटाते रजाईमार्का कुर्ता और साड़ीनुमा धोती पहने आचार्यश्री को ऐसा न करने की सलाह आप नहीं दे सकते।
ऐसे अनेक उदाहरण आए दिन मिल जायेंगे यदि आपके पास भीतरवाली आँखें हैं।
समाज में रहना चाहते हैं, शान्तिपूर्ण जीवन-यात्रा चाहते हैं, तो इन सबकी इस मूर्खतापूर्ण अभद्रता को कुँढ़ते-कलपते झेलना आपकी विवशता बन चुकी है।
दरअसल लोगों ने स्वतन्त्रता का अर्थ ही लगा लिया है मनमानी... स्वच्छन्दता.. .उछृंखलता । लोकतन्त्र के समानाधिकार वाले नियम ने मूर्खता की आग में घी की आहुति डाल दी है। विकृत शब्दार्थों वाले साम्यवाद के जाहिल रहनुमाओं ने उन प्रज्वलित चिंनगारियों को और भी हवा दे दी है।
स्वनाम धन्य सोढ़नदासजी को आए दिन इस नए ट्रेंड वाले वायरल डायलॉग का सामना करना ही पड़ता है, क्योंकि जीवन-यात्रा को कुढ़ते-कलपते गुजारने में उनकी अन्धआस्था नहीं है।
इनके साथ घटी घटनाओं-दुर्घटनाओं से समय-समय पर अवगत कराता रहा हूँ।
पुरानी घटना शायद आपको याद हो, सनातन-सुसंस्कृत आर्यावर्त के एक छोटे से गाँव से निकल कर पहली बार जब राजधानी घूमने का मौका मिला था सोढ़नदास जी को तो बड़े से रेस्टोरेन्ट के गेट पर फटी जीन्स-उघड़ी पीठ और बिखरे बालों वाली एक युवती की ओर दैन्य भाव से देखते हुए, पचास का एक नोट बढ़ाकर कहा था इन्होंने — “ इसे रख ले बिटिया ! मैं तुम्हें नये कपड़ों के लिए ज्यादा तो नहीं दे सकता, कम से कम मरम्मत करा ले इन पैसों से...।”
जवाब में गालों पर जोरदार तमाचा मिला था—“खूसट..खड़ूस बुड्ढे! मैं तुम्हें भिखारन नजर आ रही हूँ...।”
और इस नज़ारे का लुफ्त लेने के लिए मनचलों की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी अपने-अपने देशी डायलॉग के साथ।
संयोग से आज भी कुछ ऐसा ही हुआ।
समाजसेवी विचारकों और विद्वानों की विचार-गोष्ठी में सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं पर चर्चा का अवसर दे दिया किसी ने इन्हें। उन्हें शायद ये पता नहीं था कि सोढ़नदासजी की झोली में मक्खन है ही नहीं, जिसे विखेरेंगे मंच पर जाकर । काने को काना कहकर दुतकारेंगे तो नहीं, किन्तु उसे कमलनयन... राजीवलोचन भी तो नहीं कहेंगे।
बात आडम्बर और दिखावे से बचने की हो रही थी। संस्कार और समारोह के मौलिक अन्तर को समझने की हो रही थी। दम्भ-दर्प का भेद समझाया जा रहा था। नव धनाढ्यों और ‘धनपशुओं’ की मानसिकता और उसके सामाजिक दुष्प्रभाव पर गम्भीर बातें हो रही थी। किन्तु अचानक विचार-मंच की विवाद-मंच में परिणति की आशंका मड़राने लगी। दर्शकदीर्घा में कानाफुसी होने लगी।
हालाँकि विशेष कुछ हुआ नहीं। आग भड़की नहीं...धुआँ-धुआँकर ही रह गई। लेकिन सोचने-विचारने-कहने को बहुत कुछ छोड़ गई।
आए दिन हम देखते हैं— सूटेड-बूटेड नेता फटेहाल, डफलीनुमा पेट और सूखे तने जैसी काया वाले मजदूरों के बीच तनकर खड़े होकर मजे से साम्यवादी ज़ाम घोंट-घोंटकर पिलाता है और तालियाँ ही नहीं वोट भी बटोरता है।
उस स्वार्थी जाहिल नेता में महाभारत के उस शिक्षाप्रद प्रसंग के बावत सदविचार कहाँ से जगेंगे — ‘तुम्हारे घर में पकवान बन रहे हैं, उसका सुगन्ध जहाँ तक जा रहा है, वहाँ तक के प्रार्णी उसे चखने के अधिकारी हैं...पड़ोसी यदि भूखा है तो तुम खा-पीकर सुख-चैन से कैसे सो सकते हो... भूखों के समीप बैठकर सुस्वादु भोजन करना भी हिंसा के दायरे में ही आता है...इत्यादि।
गो, श्वान, काक, पिप्पलिकादि के निमित्त नित्य पञ्चबलि विधान सम्पन्न करने वाली आर्यावर्तीय संस्कृति को खेत-खलिहानों से लेकर घर तक ‘थायमेट, मालाथियान, एलड्रिन’ का छिड़काव करके, प्राकृतिक संतुलन को नष्ट-भ्रष्टकर, संरक्षण का थोथा पाठ पढ़ाया जाता है।
ऐसे में अन्न, जल, वायु से लेकर औषधि तक प्रदूषित कर तिजोरियाँ भरने वाले धनपशुओं को भला हिंसा और साम्यवाद की सूक्ष्म परिभाषा कैसे समझायी जा सकती है !
पाँच उँगलियों को काट-छाँट कर एक बराबर कर देना कतई साम्यवाद नहीं हो सकता। छड़ी को छाता और छाते को छड़ी की तरह इस्तेमाल करने की सलाह साम्यवाद नहीं हो सकता। पूँजी केवल भौतिक सम्पदा ही नहीं, बौद्धिक और शारीरिक क्षमता भी है—इन बातों को कौन समझेगा ! कब समझेगा...समझेगा भी या नहीं !
गाँधी को महान अहिंसावादी कहा-माना गया है। उनकी भट्ट प्रशस्ति में भक्तों द्वारा गाया भी गया है—‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल...। ’ जबकि इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है? पूर्ववर्ती और परवर्ती असंख्य बलिदानियों का क्या कोई मोल नहीं? या कहें लाशों से भरी रेलगाडियों के लिए कौन जिम्मेवार है?
जिस्मफ़रोशी के फिल्मी बाजार से अर्द्धनग्नता के भोंड़े फैशन बटोर लाते हैं। फैशन-टेक्नोलॉजी, फैशन-डिज़ायनर और कॉस्मेटिक प्रोडयूसर अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में समाज में तरह-तरह के मनोविकार पैदा करते हैं।
अपहरण, बलात्कार, हिंसादि के लिए तन-प्रदर्शन भी आँशिक रूप से जिम्मेवार अवश्य है और समाज के लिए इससे भी कहीं अधिक घातक है धनपशुओं द्वारा धन-प्रदर्शन।
वस्तुतः सत्कर्म से धनार्जन का महत्व है। सत्कर्म में उसे खर्चने का और भी महत्व है। धन फूँकने के लिए नहीं है।
लोग कहते हैं—दहेज समस्या है।
अरे मूर्खाधिराजों ! दहेज का उपयोग क्या होता है—अनाप-सनाप खर्चे, दम्भ-दिखावे-प्रदर्शन।
दिखावा कम करो, दहेज में स्वतः कमी आ जायेगी। विवाह को संस्कार समझ लो, समारोह नहीं। समस्या स्वतः सुधर जायेगी।
विवाह समारोह में बजते कर्कश डी.जे. की आवाज से किसी को दिल का दौरा पड़ जाय, तो इसका गुनाहगार किसे माना जाए? क्या वह अपने कान में रूई ठूँस कर बैठे ? डी.जे. बनाने वाली कम्पनियों में आग क्यों न लगा दी जाए?
सच कहें तो ये सबके सब महान हिंसक हैं— छद्म हिंसक।
सोढ़नदासजी की नजरों में हिंसा-अहिंसा की परिभाषा ही कुछ और है। धनकुबेरों के बेसुमार दिखावे से दुष्प्रभावित-असमर्थ मध्यम या निम्न वर्ग में पनपती कुँठा और हीनभावना के लिए क्या वे जिम्मेवार नहीं हैं?
क्या ये कह कर वे अपनी सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त हो जा सकते हैं कि मेरे पास धन है, लुटा रहे हैं। देखने वाले को क्यों दिक्कत ?
सच पूछें तो पसीने की कमाई से तो रोटी-कपड़ा-मकान जुटाने में ही जिन्दगी चूक जाती है। फाईवस्टार रिशॉर्टों का खर्चा तो किसी न किसी का खून चूँसकर ही सम्भव है।
सोढ़नदासजी के विचार से ये सब सामाजिक कुव्यवस्था के घातक ‘वायरस’ हैं। इनके लिए कोई न कोई अच्छा सा ‘ वैक्सीन’ इज़ाद करना ही होगा।
अंग-प्रदर्शन के साथ-साथ धन-प्रदर्शन का भी विरोध करना ही होगा। कुछ नहीं तो कम से कम ऐसे समारोहों का वहिष्कार तो किया ही जा सकता है।
कॉन्वेटियों की दुकानें बन्द कराकर, गुरुकुलों की पुनर्स्थापना करनी होगी।
स्वतन्त्रता पूर्व हमने विदेशी कपड़ों की होली जलायी थी। अब देशी कपड़ों की भी जलानी होगी।
कटी-फटी जीन्स और टॉपलेश पोशाकों की फैक्ट्रियों और दुकानों में बम फेंकने के लिए भगत सिंह को फिर से अवतरित होना पड़ेगा। अपनी संस्कृति को हर सम्भव प्रयासों से रक्षित करना होगा। अस्तु।
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