"संसद में जनप्रतिनिधियों का गिरता स्तर: लोकतंत्र का उपहास"
✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान उसकी संसद है, जहां जनप्रतिनिधि देश की जनता की आवाज बनकर नीतियाँ तय करते हैं, कानून बनाते हैं, और सरकार की कार्यप्रणाली पर निगरानी रखते हैं। यह वह मंदिर है जहां लोकतंत्र का यज्ञ चलता है। पर दुर्भाग्यवश आज यह यज्ञ अशांति, शोरगुल और अव्यवस्था की भेंट चढ़ता जा रहा है। संसद का दृश्य कई बार इतना दुखद और शर्मनाक होता है कि वह किसी शिक्षित लोकतंत्र की नहीं, बल्कि अनियंत्रित भीड़ की तस्वीर पेश करता है।
सदस्यों का व्यवहार: जाहिलों से भी बदतर
विपक्ष हो या सत्ता पक्ष – बहस के नाम पर चिल्ल-पों, अमर्यादित भाषा, माइक तोड़ना, कागज फाड़ना, स्पीकर की बात न सुनना, और बार-बार सदन की कार्यवाही स्थगित करना आम होता जा रहा है। यह सब उस जगह पर हो रहा है जहां से देश को दिशा मिलनी चाहिए। विडंबना यह है कि कई सांसद संसद में न तो सवाल पूछते हैं, न बहस में हिस्सा लेते हैं – लेकिन जब टीवी कैमरे ऑन होते हैं, तब सिर्फ दिखावे के लिए हंगामा करते हैं।
क्या यह वही संसद है जहां पं. नेहरू, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, इंदिरा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं ने तार्किक और गरिमामयी बहस की परंपरा कायम की थी? क्या आज के नेता उस परंपरा के उत्तराधिकारी हैं?
जनता के पैसे का दुरुपयोग
हर मिनट की संसद की कार्यवाही पर लाखों रुपये खर्च होते हैं – और यह पैसा किसी और का नहीं, हम सब करदाताओं का है। जब संसद ठप रहती है, या केवल हंगामे में बीत जाती है, तब यह सीधा जनता के पैसे का अपमान होता है। क्या हमनें इन्हें इसलिए चुना था? जनता ने इन्हें इसलिए संसद भेजा कि वे अपने निजी स्वार्थ, अहंकार और दलगत राजनीति के लिए संसद को अखाड़ा बना दें?
लोकतंत्र की हत्या
संसद में अमर्यादित व्यवहार केवल नियमों का उल्लंघन नहीं है – यह लोकतंत्र की आत्मा की हत्या है। जब बहस के स्थान पर शोर, तर्क के स्थान पर तू-तू मैं-मैं और समाधान के स्थान पर टकराव हो, तब जनता का विश्वास धीरे-धीरे तंत्र से उठने लगता है। यह बहुत ही खतरनाक संकेत है।
समाधान की दिशा में कदम
- संसदीय प्रशिक्षण अनिवार्य हो: हर नव-निर्वाचित सांसद को संसद की गरिमा, नियम और कार्यप्रणाली का प्रशिक्षण देना चाहिए।
- कठोर दंड व्यवस्था: जो सांसद जानबूझकर सदन की कार्यवाही बाधित करते हैं, उन्हें वेतन, भत्ते और सुविधाओं से वंचित किया जाना चाहिए।
- लोकतांत्रिक मूल्य शिक्षा: राजनीतिक दलों को अपने नेताओं को वैचारिक रूप से प्रशिक्षित करना चाहिए ताकि वे लोकतंत्र के मूल्यों को समझ सकें।
- जनता की निगरानी: जनता को भी सजग रहना होगा और ऐसे प्रतिनिधियों को पुनः न चुनने का संकल्प लेना चाहिए जो संसद को सर्कस बना देते हैं।
संसद केवल एक इमारत नहीं, बल्कि वह पवित्र स्थान है जहां से देश की नियति तय होती है। अगर वहां बैठे जनप्रतिनिधि खुद को असंयमित, अशिक्षित और अराजक साबित करते हैं, तो यह न केवल उनकी हार है, बल्कि पूरे लोकतंत्र की विफलता है। अब समय आ गया है कि संसद की गरिमा को बचाने के लिए न सिर्फ भीतर से सुधार हो, बल्कि जनता भी अपना नैतिक उत्तरदायित्व निभाए। क्योंकि अगर संसद ही मजाक बन गई, तो लोकतंत्र की नींव खुद-ब-खुद चरमरा जाएगी।
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